स्वामी विवेकानंद पर निबंध ?? Swami Vivekananda Essay in Hindi

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हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Swami Vivekananda Essay in Hindi पर पुरा आर्टिकल। आज हम आपके सामने Swami Vivekananda के बारे में कुछ जानकारी लाये है जो आपको हिंदी essay के दवारा दी जाएगी। आईये शुरू करते है Swami Vivekananda in Hindi. आप Swami Vivekananda Quotes in Hindi में भी पढ़ सकते है

Swami Vivekananda Essay in Hindi Number 1

Swami Vivekananda Essay in Hindi

स्वामी विवेकानंद के जन्म-कलकत्ता के एक श्रेष्ठ कुल के ब्राह्मण विश्वनाथ दत्त की धर्मपत्नी श्रीमती भुवनेश्वरी देवी ने १२ जनवरी१८६३ को एक पुत्र को जन्म दिया। माता ने पुत्र के जन्म होने से पहले वीरेश्वर का पूजन किया था, अत: माँ ने पुत्र का नाम वीरेश्वर रखा। बाद में उसका नाम नरेंद्रनाथ प्रसिद्ध हुआ।

संन्यासी बनने के उपरांत उसका नाम विवेकानंद रखा गया। शिक्षा-आरंभ में माँ ने घर पर ही नरेंद्र को शिक्षा देना आरंभ किया। वह उन्हें बैंगला तथा अंग्रेजी पढ़ाया करती थीं। उन्होंने नरेंद्र को रामायण तथा महाभारत की कथाएँ विस्तार से सुनाकर बालक में धार्मिक भावनाएँ कूटकूटकर भरने का प्रयत्न किया।

श्रीराम के चरित्र पर तो नरेंद्र शुरू से ही मुग्ध थे और उनकी कथा सुनते हुए वह भावविभोर हो जाते थे। परंतु बाल्यकाल से ही वह तर्कशील थे। परीक्षा तथा तर्क बिना वह किसी बात को आंख मूंदकर स्वीकार करना उचित नहीं समझते थे। उनकी स्मरणशक्ति अनोखी थी।

ईश्वर-जिज्ञासु सोलह वर्ष की अवस्था में नरेंद्र ने एंट्रेंस (दसवीं) परीक्षा पास कर ली । इसके बाद वे कॉलेज में दाखिल हो गए। इसी समय उनका ब्राह्मसमाज से संपर्क हुआ। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बने एक दिन नरेंद्र अपने कुछ मित्रों के संग स्वामी रामकृष्ण परमहंस के दर्शन करने गए। परमहंस महाराज प्रसिद्ध आध्यात्मिक संत थे। नरेंद्र ने उनसे भी पूछा”क्या आपने ईश्वर को देखा है ?’ स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने सहज भाव से उत्तर दिया”हाँ, देखा है, ठीक वैसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूं।” नवयुवक नरेंद्र पर स्वामीजी के उत्तर का गंभीर प्रभाव पड़ा और उन्होंने परमहंस महाराज की शिष्यता स्वीकार कर ली।

नरेंद्र के विवाह के लिए कई प्रस्ताव आएपरंतु किसी-नकिसी कारण से बातचीत टूट गई। स्वामी रामकृष्ण परमहंस नहीं चाहते थे कि उनके योग्य शिष्य नरेंद्र विवाह-बंधन में बंधे। सन् १८८४ में नरेंद्र ने बी.एकी परीक्षा पास कर ली। उसी वर्ष उनके पिताजी चल बसे। परिवार पर आर्थिक संकट टूट पड़ा। नरेंद्र ने नौकरी प्राप्त करने के अनेक प्रयास किए किंतु सब व्यर्थ। हताश नरेंद्र जीवन को ही व्यर्थ समझने लगे। उनके मन में वैराग्य की भावना जड़ जमाने लगी।

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गुरु का देहांत सन् १८८६ में परमहंस का देहांत हो गया। उसके कुछ ही दिन बाद पच्चीस वर्ष की अवस्था में नरेंद्र संन्यासी हो गए ।उनका नाम विवेकानंद हो गया और वे संसार को धर्म तथा आध्यात्मिकता का संदेश देने के लिए देश-भ्रमण को चल पड़े।

सन् १८८६ और १८९३ के बीच विवेकानंद ने हिमालय पर्वत से लेकर कन्याकुमारी तक संपूर्ण भारत का भ्रमण कर डाला। उन्होंने अपनी आंखों से देश की गरीबी तथा अज्ञानता को देखा। इसके अतिरिक्त उन्होंने जनता के स्वभाव तथा संस्कृति का भी अध्ययन किया। वह देश की दुर्दशा पर रो पड़े। उन्होंने समस्त देश को जाग्रत करने का दृढ़ निश्चय किया।

अमेरिका में पताका फहराई—उन्हीं दिनों अमेरिका के शिकागो नगर में सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन किया गया था। स्वामी विवेकानंद ने सोचा कि यह हिंदू धर्म तथा वेदांत दर्शन का संसार को ज्ञान कराने का अच्छा अवसर है। अतवह शिकागो के लिए चल पड़े। एक सज्जन थे प्रो. राइट। प्रो. राइट पर विवेकानंद के व्यक्तित्व तथा ज्ञान का बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने प्रयत्न किया और स्वामी विवेकानंद को भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाषण करने का अवसर दिलाया।

भाषण सर्वधर्म सम्मेलन में स्वामीजी का प्रथम भाषण बहुत संक्षिप्त था। फिर भी उससे उनकी विद्वता टपकती थी। उनके भाषण से श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे। १९ सितंबर, १८९३ को उन्होंने हिंदू धर्म की व्यापकता, उदारता और वेदांत के महत्व पर प्रकाश डाला। यह उनका दूसरा भाषण था।

जब उन्होंने दूसरा भाषण दिया तो लोग चकित रह गए तथा अमेरिका में उनके नाम की धूम मच गई। उन्हें कई स्थानों से भाषण देने के लिए निमंत्रण प्राप्त होने लगे। ढाई वर्ष तक अमेरिका और यूरोप के विभिन्न स्थानों भाषण देते हुए सन् १८९६ में पर वे भारत वापस आए। इससे पहले ही उनकी कीर्ति-सुगंध समस्त देश में प्रसारित हो चुकी थी। भारत में सर्वत्र उनका भारी स्वागत किया गया। वे जहाँ जाते, लाखों नर-नारी उनका हार्दिक स्वागत करते तथा मुक्तकंठ से उनका जयगान करते थे।

देश में भ्रमण स्वामी विवेकानंद ने देश के कोने-कोने में घूमघूमकर प्रेमसेवा तथा त्याग-भावना का उपदेश दिया। रामकृष्ण मठ की स्थापना-अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के आदर्शों का अनुसरण करते हुए स्वामी विवेकानंद ने ज्ञान और भक्ति के प्रसार तथा जनसेवा हेत रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। पुन: अमेरिका सन् १८९९ में विवेकानंदजी पुन: अमेरिका चले गए।

सन् १९०० में वह पेरिस के सर्वधर्म सम्मेलन में सम्मिलित हुए। देहावसान यूरोप से भारत लौटने के उपरांत स्वामीजी का स्वास्थ्य दिनोंदिन गिरता गया।४ जुलाई१९०२ को केवल उनतालीस वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।

 

Swami Vivekananda Essay in Hindi Number 2

आधुनिक युग के संतों में अग्रगण्य और वेदांत दर्शन की धर्मध्वजा को देश व विदेशों में फहराने में स्वामी विवेकानन्द का अविस्मरणीय योगदान है। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 मंगलवार को कलकत्ता में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था। स्वामी विवेकानन्द का बाल्यकाल का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। इनके बाबा (दादा) श्री दुर्गाचरण दत्त बहुत प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे जिन्हें फारसी तथा संस्कृत दोनों का बहुत अच्छा ज्ञान था।

स्वामी विवेकानन्दजी की माता भी बहुत गुणवान तथा राजसी स्वभाव की महिला थीं। उनके सम्पर्क में जो भी आता था उनकी उदारता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था। माता की शिक्षा, गुणों तथा ज्ञान का बालक नरेन्द्र पर काफी प्रभाव पड़ा था। नरेन्द्रनाथ को बचपन से साधुसंगति का काफी शौक था। उनके दरवाजे जो भी साधु आता वे उसका सम्मान करते तथा घर में जो भी उपलब्ध होता, चलते समय वह साधु को भेंट स्वरूप दे देते।

पढ़ाई में भी नरेन्द्र की प्रतिभा विलक्षण थी। वे अपने अध्यापक द्वारा पढ़ाया पाठ आसानी से याद कर लिया करते थे और आवश्यकता पड़ती तो उसे दोहरा भी सकते थे। विलक्षण प्रतिभा के धनी नरेन्द्र को इतना कुशाग्र देखकर अध्यापक भी आश्चर्य में पड़ जाते थे।

नरेन्द्र विवेकानन्द) ग्रजुऐट हो चुके थे। उनके पिता जोर देते थे कि नरेन्द्र विवाह कर लें। किन्तु, युवा नरेन्द्र ने इसे स्वीकार नहीं किया और कोईनकोई तर्क देकर वे हमेशा शादी के प्रस्ताव को रद्द कर देते थे। उनका तरुण मन कभीकभी दुनिया की नश्वरता तथा असारता से ऊब कर कहीं एकान्त में सत्य की खोज में ध्यानस्थ हो जाता था। शुरू में वे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए थे जो उस समय बंगाली बुद्धिजीवियों की एक प्रतिष्ठित संस्था थी। लेकिन नरेन्द्र का तर्कशील मन शीघ्र ही उस संस्था से ऊबने लगा। और वे किसी ज्ञानी भक्त की तलाश करने लगे। ऐसे ज्ञानी भक्त स्वामी रामकृष्ण थे जो दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर के पुजारी थे और मां काली की पूजा करतेकरते समाधि में चले जाते थे।

नरेन्द्रनाथ उनकी कीर्ति से प्रभावित होकर अपने साथियों के साथ स्वामी रामकृष्णजी से मिलने दक्षिणेश्वर गए। वहां उनके साथ कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुई जिसकी वजह से वे धीरेधीरे स्वामी रामकृष्ण देव के सम्पर्क में ज्यादा आने लगे और अन्ततः एक दिन उनके पूरे शिष्य बन गए। नरेन्द्रनाथ की आन्तरिक प्रतिभा को स्वामी रामकृष्ण ने बहुत अच्छी तरह पहचान लिया था। वे अपनी साधना के बलबूते पर यह भी समझ गए थे कि ‘नरेन्द्र पूर्वजन्म में कोई महात्मा था जिसकी साधना में किंचित् न्यूनता रह जाने के कारण उसे दूसरा जन्म धारण करना पड़ा।

16 अगस्त, 1886 को श्रीरामकृष्ण देव ने इस संसार से विदा ले ली और उनका पार्थिव शरीर बेलूर मठ के समीप गंगा तट (हुगली) पर पंचतत्व में विलीन हो गया। स्वामी विवेकानन्द के लिए यह एक बहुत बड़ा झटका था। लेकिन विधि का विधान समझ कर वे इसे सहन करने में सफल हुए और लाखोंकरोड़ों लोगों को अपने गुरु का संदेश सुनाने के लिए साधना की डगर पर अग्रसर हुए। स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशनका निर्माण किया।

खेतड़ी के महाराजा के कहने पर वे विश्व धर्म संसद में भाग लेने के लिए अमेरिका गए। सोमवार 11 सितम्बर1898 का शुभ दिन था, जिस दिन धर्म संसद का पहला सत्र शुरू हुआ। शिकागो कोलम्बो हॉल प्रतिनिधियों से भरा हुआ था। दोपहर के सत्र के बाद करीब 2 बजे जब दूसरा सत्र शुरू हुआ उस समय अध्यक्ष के अनुरोध पर जैसे ही स्वामी विवेकानन्द ने अपना सभा के ऊपर दृष्टिपात किया तो सभा उनके ओजस्वी व्यक्तित्व से मंत्रमुग्ध हो गई। अमेरिकी भाइयों और बहनों के आत्मीयतापूर्ण सम्बोधन से वे इतने अभिभूत हो गए कि दो मिनट तक हर्ष से तालियां ही बजती रहीं। शिकागो भाषण से पूरे विश्व में विवेकानन्द के ओजस्वी व्यक्तित्व की धूम मच गई। वे जहां जाते सर्वत्र लोग उनका स्वागत करते, उनके विचार सुनते और उनके शिष्य बनकर स्वयं को धन्य मानते थे।

विवेकानन्द द्वारा संस्थापित रामकृष्ण मिशन आज एक विश्वस्तरीय संस्था है। स्वामी विवेकानन्द देशविदेश में घूमकर रामकृष्ण मिशनों की स्थापना तथा वेदान्त का प्रचार कर | रहे थे। अमेरिका में हिन्दू संस्कृति के प्रति आस्था जगाने में स्वामी विवेकानन्द का कार्य अद्वितीय माना जाता है। उनका पांच भौतिक शरीर प्रचारप्रसार का भारी कार्य करते करते थक चुका था। वे बेलूर मठ में विश्राम कर रहे थे तथा अपने शिष्यों को संस्कृत तथा वेदान्त-दर्शन की शिक्षा दिया करते थे। तभी एक दिन 4 जुलाई शुक्रवार, 1902 को स्वामीजी की मात्र 39 वर्ष की आयु में मृत्यु हुई थी।

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Swami Vivekananda Essay in Hindi Number 3

स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम था-नरेन्द्र। परंतु संपूर्ण विश्व में वह स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हैं। स्वामी विवेकानंद का जन्म 1863 ई० में हुआ था। उन्होंने अंग्रेज़ी स्कूल में शिक्षा पाई और 1884 में बी.. की डिग्री प्राप्त की।

उनमें आध्यात्मिक भूख बहुत तीव्र थी, अत: वह ‘ब्रह्म समाज’ के अनुयायी बन गएउन दिनों स्वामी विवेकानंद जब सत्य की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे तब उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई। फिर उन्होंने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बना लिया। परमहंस जी की वाणी में अद्भुत आकर्षण-शक्ति थी, जिसने स्वामी विवेकानंद को वशीभूत कर लिया और वे उनके भक्त बन गए। नरेन्द्र की माँ की इच्छा थी कि वह वकील बने और विवाह करके प त्र गृहस्थी बसाए। परंतु जब वे रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव में आएतो उन्होंने संन्यास ले लिया। अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए वे हिमालय चले गए।

सत्य की खोज में उन्होंने अनेकों कष्ट झेलेफिर हिमालय से उतरकर उन्होंने सारे देश का भ्रमण कियालोगों को धर्म और नीति का उपदेश दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी उन्हीं दिनों स्वामी विवेकानंद को अमेरिका में होने वाले ‘सर्वधर्म सम्मेलन का समाचार मिलावे तुरंत उसमें सम्मिलित होने को तैयार हो गए और भक्त मंडली के सहयोग से वे अमेरिका पहुँच गएवहाँ पहुँचकर उन्होंने ऐसा पाण्डित्य पूर्णओजस्वी और धारा प्रवाह भाषण दिया कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए

स्वामी विवेकानंद ने पश्चिम वालों को बताया कि कर्म को केवल कर्तव्य समझकर करना चाहिएउनमें फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए।’ यह बात उनके लिए बिल्कुल नई थी। स्वामी विवेकानंद के भाषणों की प्रशंसा वहाँ के समाचार-पत्रों में छपने लगी। उनकी वाणी में ऐसा जादू था कि श्रोता आत्म-विभोर हो जाते थे।
स्वामी जी अमेरिका में तीन साल रहे और वहाँ वेदान्त का प्रचार करते रहे। इसके बाद वे इंग्लैण्ड चले गए। वहाँ भी वे एक वर्ष रहे। वहाँ पर उनके वेदान्त के ज्ञान से प्रभावित होकर कई अंग्रेज़ उनके शिष्य बन गए और उनके साथ भारत आ गए।

स्वामी विवेकानंद का रूप बड़ा ही सुंदर एवं भव्य था। उनका शरीर गठा हुआ था। उनके मुखमंडल पर तेज था। उनका स्वभाव अति सरल और व्यवहार अति विनम्र था। वे अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृतजर्मन हिब्रू, ग्रीक, फ्रेंच आदि भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे।

बाद में स्वामी विवेकानंद ने ‘रामकृष्ण मिशनकी स्थापना की और इसकी शाखाएँ देशभर में खोल दीं। इस संस्था का उद्देश्य लोकसेवा करते हुए वेदान्त का प्रचार-प्रसार करना था।

फिर एक दिन 4 जुलाई, 1902 को वे एकाएक समाधि में लीन हो गए। बताया जाता है कि उसी अवस्था में वह शरीर त्यागकर स्वर्ग सिधार गए। कन्याकुमारी में समुद्र के मध्य बना ‘विवेकानंद स्मारक’ उनकी स्मृति को संजोए हुए है। वे ज्ञान की ऐसी मशाल प्रज्जवलित कर गए हैं, जो संसार को सदैव आलोकित करती रहेगी।

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Written by

Romi Sharma

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