हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Essay on Rabindranath Tagore in Hindi पर पुरा आर्टिकल। आज हम आपके सामने Rabindranath Tagore के बारे में कुछ जानकारी लाये है जो आपको हिंदी essay के दवारा दी जाएगी। आईये शुरू करते है Essay on Rabindranath Tagore in Hindi
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रवींद्रनाथ का जन्म7 मई 1861 को श्री देवेंद्रनाथ ठाकुर के यहाँ हुआ था। देवेंद्रनाथ बंगाल के संपन्न जतदारों में से थे और उनका परिवार शिक्षा और संस्कृति के लिए प्रांत-भर में प्रसिद्ध था। उनके घर का वातावरण वेद और उपनिषदों से गुंजित रहता था। इस परिवार ने कई लेखकों और संतों को जन्म दिया था। उन्होंने समाज में प्रचलित कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए ब्राह्मसमाज’ नामक संस्था की स्थापना की थी। इस संस्था ने जाति-पाँत के भेदभाव और पुरानी रूढ़ियों के विरुद्ध आंदोलन किया था। ऐसे परिवार में, इतने संपन्न वातावरण में रवींद्र की प्रतिभा साहित्य और कला की ओर झुकी।
उन्होंने खूब अध्ययन किया। स्कूलों का वातावरण रवींद्र को पसंद नहीं था। यही कारण था कि स्कूलों व कॉलेजों में वे न पढ़ सके । परंतु अध्ययन के प्रति उनकी रुचि बढ़ती ही गई। संपन्न परिवारप्राकृतिक वातावरणअध्ययन और भ्रमण ने उन्हें कवि और कलाकार बना दिया। रवींद्रनाथ सन् 1877 . में शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गए। वहाँ भी वे शिक्षा की कोई उपाधि न प्राप्त कर सके और घूमफिरकर स्वदेश लौट आएस्वदेश लौटने पर उनके पिताजी ने उनको जमींदारी की देखरेख करने के लिए सियालदह भेज दिया। वहाँ पहुँचकर उन्हें फिर एकांत मिला और उनके कलाप्रेम को पनपने का अच्छा अवसर भी।
यहाँ पर रहकर उन्होंने ‘साधना’ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया। यहाँ पर वे किसानों के भी निकट संपर्क में आए और कृषक वर्ग की सेवा की। उन्होंने १९०१ में ‘विश्व भारती’ की स्थापना की। इस संस्था की स्थापना के पीछे रवींद्रनाथ की तत्कालीन नीरस स्कूली शिक्षा के प्रति विद्रोह की भावना भी थी। आजकल यह संस्था शिक्षा के क्षेत्र में उदाहरण और विश्व-बंधुत्व का प्रतीक बन गई है।
सन् 1 9 02 में पत्नी का स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् उन्होंने कुछ कविताएँ पत्नी के वियोग में लिखीं। उनकी ये कविताएँ ‘स्मरण’ में संकलित हैं। धीरे-धीरे उनकी रचनाएँ यूरोप की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। इससे विदेशों में इनका नाम हो गया। सन्1 9 12 में जब ये अपना इलाज कराने के लिए इंग्लैंड गए तो वहाँ इनका बहुत स्वागत हुआ। इसके पश्चात् वे अमेरिका गए और वहीं उन्होंने अपनी रचनाओं के अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित कराए। सन् 1 9 13 में उनको ‘गीतांजलि’ पर नोबेल पुरस्कार मिला और उनका यश सारे संसार में फैल गया। सन् १९१४ में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया। सन् १९१९ में जलियाँवाला कांड से क्षुब्ध होकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार को ‘सर की उपाधि लौटा दी। स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी महात्मा गांधी उनका बड़ा सम्मान करते थे और उनको गुरुदेव कहा करते थे। बाद में रवींद्रनाथ गुरुदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए। रवींद्रनाथ ने विश्व के अनेक देशों में जा-जाकर भारतीय संस्कृति का नाम ऊंचा किया।
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उन्होंने दुनिया को यह संदेश दिया कि प्रेम और भाईचारे से मनुष्य का विकास हो सकता है । उन्होंने विदेशियों की भारत के विषय में रुचि उत्पन्न की। फ्रांस के महान् लेखक रोम्याँ रोलाँ ने रवींद्रनाथ को भारतीय नव जागरण का अग्रदूत कहा था। रवींद्रनाथ का जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रवेश था। वे साहित्यकारविचारक, शिक्षाशास्त्री, कलाकार और संगीतज्ञ थे। उनकी कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ-‘काबुलीवाला, ‘गोरा, ‘की किरकिरी(उपन्यास);घर वापसी’ (कहानियाँ);चित्रांगदा (नाटक), गीतांजलि’ (कविता) आदि हैं। रवींद्रनाथ रूसी समाजवाद के भी प्रशंसक थे। उन्होंने अपने निबंधरूस की चिट्ठी में समाजवाद की बड़ी प्रशंसा की।
सन् १९११ में उन्होंने जो ‘जनगण-मन’ गान रचा था, वही स्वाधीनता के बाद भारत का राष्ट्रीय गान बनाया गया। उनकी रचनाओं के अनुवाद सभी भाषाओं में हो चुके हैं। ८ अगस्त, १९४१ को अस्सी वर्ष की आयु में उनका स्वर्गवास हो गया। उनके निधन से भारतवर्ष और विश्व साहित्य को बहुत क्षति पहुँची और सारे संसार में उनके निधन पर शोक मनाया गया। उन्होंने विश्व साहित्य में भारतीय साहित्य को जो उच्च स्थान दिलाया, भारतवासी उसके लिए उनके सदा ऋणी रहेंगे।
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कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत के उन गिनेचुने व्यक्तियों में माने जाते हैं, जिनको साहित्यिक सेवाओं के कारण विश्व का सर्वाधिक चर्चित ‘नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इन्हें लोग श्रद्धावश गुरुदेव’ कहते थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई, 1861 को द्वारकानाथ टैगोर लेनकलकत्ता में देवेन्द्रनाथ ठाकुर के पुत्र के रूप में हुआ था। बालक रवीन्द्र को बचपन से ही एकाकी रहने की आदतसी पड़ गई थी, क्योंकि इनकी माता का निधन सन् 1875 में हो गया था, जब ये मात्र 14 वर्ष के थे। इनकी पहली कविता सन् 1874 में ‘तत्व भूमि’ पत्रिका में छपी थी । कविता का शीर्षक ‘अभिलाषा’ था।
बालक रवीन्द्र की अधिकांश शिक्षा यद्यपि घर पर ही हुई थी, फिर भी ये 1868 से लेकर 1874 तक, अर्थात् छह वर्ष स्कूल जाते रहे। रवीन्द्र की बाल्यकाल से साहित्य सृजन में रुचि थी, इसी वजह से ये कविता, कहानी नाटक, गद्य निबंधआदि लिखा करते थे। सन् 187677 के मध्य इनकी रचनाओं का एक बड़ा संस्करण छप चुका था। ये अलगअलग क्रमशः जनांकुरऔर ‘प्रतिबिम्ब’ में तथा इनके परिवार की निजी पत्रिका ‘भारती’ में प्रकाशित होते रहते थे।
रवीन्द्र बाबू को अभिनय का भी शौक था। वे सर्वप्रथम प्रहसन अभिनेता के रूप में सन् 1877 में सामने आए थे। कालान्तर में भी यदाकदा ये इस रूप में प्रकट होते रहे। संगीत शास्त्र, दर्शन शास्त्र रवीन्द्र के अन्य प्रिय विषय थे।
कभीकभी ये चित्र रचना करने भी बैठ जाते थे। इनकी बनाई कुछ तस्वीरें आज भी लाखों रुपये मूल्य की मानी जाती हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने भाई सत्येन्द्रनाथ के साथ पहली बार इंग्लैंड सन् 1878 में गए थे। उस समय इनकी आयु मात्र 17 वर्ष की थी। वहां रहकर इन्होंने कुछ समय तक यूनीवर्सिटी कॉलेज लंदन में हेनरी मार्गो से अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया था। रवीन्द्र बाबू का लेखन कार्य अबाध गति से चलता रहा। सन् 1881 में इनके निबंधों का संग्रह ‘लेटर्स’ नाम से छपा था। इसी दौरान उन्होंने अपना संगीतमय नाटक वाल्मीकि-प्रतिभा भी लिखा और स्वयं वाल्मीकि का अभिनय किया था। इसी दौरान संगीत पर इन्होंने अपना पहला लिखित भाषण दिया था।
इंग्लैंड से भारत लौटने पर इन्हें पत्रिका निकालने की आवश्यकता अनुभव होने लगी। उन्होंने ‘साधनानामक एक पत्रिका निकालने का विचार किया। इस पत्रिका का सम्पादक उन्होंने अपने भतीजे सुधीन्द्रनाथ को बनाया था। यह एक ऐसी पत्रिका थी, जिसमें समसामयिक लेख और कविताएं छपती थीं। आपकी साहित्य-साधना की ओर सभी शिक्षित लोग सम्मान की दृष्टि से देख रहे थे।
आपकी रचनाओं का प्रचार बढ़ रहा था, इसलिए सुशिक्षित समाज द्वारा श्रद्धा प्रकट करने हेतु सन् 1907 में आपको बंगीय साहित्य सम्मेलन (Bengali Literary Conference) का सभापति चुना गया। रवीन्द्र बाबू की साहित्य-साधना को ध्यान में रखकर बंगीय साहित्य परिषद ने उनके जीवन की अर्द्धशती पूरी होने पर उनका अभिनन्दन किया। इसी दौरान रवीन्द्रनाथ ने अन्तप्रेरणा से अपनी कालजयी रचना ‘गीतांजलि’ का अविकल अंग्रेजी अनुवाद भी पूरा कर डाला था, ताकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उस महती रचना का मूल्यांकन किया जा सके।
गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद से अंग्रेजी साहित्य मण्डल में एक सनसनी-सी फैल गई। लोग इस सुन्दर रचना के शिल्प, अभिव्यक्ति भाव सभी पर मुग्ध थे। सन् 1913 में स्वीडिश अकादमी के द्वारा इसे नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। बंगला के लब्ध-प्रतिष्ठ कवि अब विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर हो गए। रवीन्द्र बाबू की ख्याति साधारण झोपड़ी से लेकर ब्रिटिश सम्राट पंचम जार्ज तक फैल चुकी थी। सम्राट ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। इसी वर्ष सी.एफ. एण्दूज तथा गांधीजी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की भेंट शांति निकेतन में हुई। गांधीजी और रवीन्द्रनाथ की यह पहली मुलाकात थी।
शान्ति निकेतन में विश्वभारती’ (World University) की आधारशिला रखी गई, जिसमें गुरुकुल शैली में शिक्षा देने की व्यवस्था की गई थी। अपने विचारोंसिद्धान्तों का साहित्य सृजन के माध्यम से प्रचार करने के साथसाथ रवीन्द्रनाथ भाषण द्वारा भी लोगों को अपने सविचारों से प्रेरित करते थे कि भलाई की राह पर चलें। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में सन् 1980 में उन्होंने ऐसे ही विषय ‘मानव का धर्म पर अपने विचार प्रकट किए थे, जिन्हें खूब सराहा गया। सुभाष चन्द्र बोस के अनुरोध पर उन्होंने कलकत्ता में महाजती सदन की आधारशिला रखी थी।
14 अप्रैल सन् 1941 को जब शान्ति निकेतन में इस महापुरुष की 80वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई जा रही थी, तो कौन जानता था कि ये सदासदा के लिए भारतवासियों से बिछुड़ने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें गुर्दे की बीमारी थी। 7 अगस्त, 1941 को उनका आप्रेशन किया गयाजो सफल नहीं हुआ और वे समस्त हर्ष और विषादों को संजोए हुए चिर निद्रा में खो गए।
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