हेलो दोस्तों आज फिर में आपके लिए लाया हु Essay on Global Warming in Hindi पर पुरा आर्टिकल।ग्लोबल वार्मिंग एक बहुत बड़ी समस्या है जो हर साल तेज़ी से बढ़ती जा रही है। अगर आप अपने बच्चे के लिए Essay on Global Warming in Hindi में ढूंढ रहे है तो हम आपके लिए ग्लोबल वार्मिंग पर लाये है जो आपको बहुत अच्छा लगेगा। आईये पढ़ते है Essay on Garden in Hindi
ग्लोबल वार्मिंग पर निबंध – Essay on Global Warming in Hindi
प्रकृति ने संपूर्ण जीवनमंडल के लिए स्थलजल और वायु के रूप में एक विस्तृत आवरण निर्मित किया है, जिसे हम पर्यावरण की संज्ञा देते हैं। पर्यावरण के संतुलन के लिए प्रकृति ने कुछ नियम भी निर्धारित किए हैं, कितु जब से इस पृथ्वी पर मनुष्य का अवतरण हुआ। है तब से पर्यावरण संतुलन के प्राकृतिक नियमों का खुला उल्लंघन शुरू हो गया और निरंतर प्रकृति की अनदेखी के कारण आज हमारे पर्यावरण को अनेक समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। वायु प्रदूषण जल प्रदूषण भूमि-प्रदूषण ध्वनि-प्रदूषण आदि ने सम्मिलित रूप से संपूर्ण वातावरण को प्रदूषित कर दिया है और इसका परिणाम यह हुआ है कि प्रकृति प्रदत्त जीवनदायी वायुभूमि और जल आज जीवन घातक बन गए हैं।
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पर्यावरण क्षरण एक बार फिर चर्चा में है, क्योंकि इसको लेकर एक और विश्वस्तरीय महासम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो शहर में किया गया।
इस सम्मेलन में जिस विषय को केंद्र बनाया गया, वह था। ‘विश्व्यापी तापमान वृद्धि’ अर्थात ग्लोबल वार्मिग’। वातावरण के ताप में वृद्धि वर्तमान विश्व के लिए सर्वाधिक चिंतनीय विषय है, क्योंकि जिस गति से इसकी वृद्धि हो रही है, वह संपूर्ण जीव-समुदाय के लिए घातक साबित हो रही है। हाल में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन से ज्ञात होता है कि पृथ्वी के तापमान में तीव्रगति से वृद्धि हो रही है।
तापमान वृद्धि के कारण समुद्रों की कार्बन डाइ-ऑक्साइड ग्रहण करने की क्षमता में 50 प्रतशित तक की कमी हो सकती है। इससे ग्रीन हाऊस गैसों का और अधिक विकास होगा और तापमान में भी अधिक वृद्धि होगी। समुद्र प्रतिवर्ष वायुमंडल से लगभग दो अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को अपने अंदर समेट लेता है और इस प्रकार के ग्रीन हाऊस प्रभाव को कम करता है।
तापमान वृद्धि के प्रति अनदेखी तब और अधिक भयावह प्रतीत होता है, जब यह तथ्य सामने आता है कि अमेरिका तथा जापान सहित यूरोप के 4 देश (औद्योगिक दृष्टि से विकसित) संपूर्ण विश्व के 20वें भाग में फैले हैं, किंतु वे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का 80 प्रतिशत छोड़ते हैं। वायुमंडल में छोड़ी जाने वाली ग्रीन हाउस गैसों का लगभग 25 प्रतिशत तो केवल अमेरिका द्वारा छोड़ा जाता है।
पर्यावरण क्षरण को रोकने के लिए पहले तो रियो डि जेनेरो में वर्ष 1992 में फिर वर्ष 1997 में क्योटो में और वर्ष 1998 में ब्यूनस आयर्स में
महासम्मेलन का आयोजन किया जा चुका है। इन सम्मेलनों में सर्वसम्मति से कोई निर्णय नहीं लिया जा सका, क्योंकि अमेरिका और जापान सदृश देशों ने अपना कोई स्पष्ट रवैया नहीं अपनाया। अमेरिका का तो यहाँ तक कहना है कि तापमान या मौसम परिवर्तन के लिए पर्याप्त वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, इसलिए ग्रीन हाउस गैस के नियंत्रण के लिए कानून बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रमुख औद्योगिक देश ग्रीन हाउस के विस्तार पर रोक लगाने या उसमें कटौती के लिए तैयार हैं।
ग्रीन हाउस गैसों का कुल 165 प्रतिशत इन दोनों देशो द्वारा उत्सर्जित किया जाता है। किंतु यह तर्क देते समय वे यह भूल जाते हैं कि विश्व की कुल जनसंख्या का 16 प्रतिशत भारत में निवास करता है। जबकि कुल जहरीली गैसों क मात्र 3.5 प्रतिशत ही उसके द्वारा उत्सर्जित किया जाता है। क्योटो सम्मेलन में 140 देशों ने ताप वृद्धि को रोकने पर अपनी आम सहमति व्यक्त की थी।
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इससे औद्योगिक देशों द्वारा उत्सर्जित प्रदूषित गैसों के विस्तार पर कुछ हद तक रोक लगने की उम्मीद है। यूरोपअमेरिका और जापान के साथ 21 बड़े औद्योगिक देशों के ग्रीन हाउरू | गैसों के विस्तार पर कुछ हद तक रोक लगने की उम्मीद है। यहाँ पर समझौते के अनुसार |
अमेरिका 7 प्रतिशतयूरोपीय देश 8 प्रतिशत तथा जापान ने 8 प्रतिशत की कटौती के स्वीकार किया है। 1992 के रियो डि जेनेरो के पृथ्वी सम्मेलन में तापमान-वृद्धि को रोक का जो विचार विश्व के समक्ष प्रस्तुत हुआ। उसको कार्यरूप देने की दिशा में क्योटो सम्मेलन का कारगर ऐतिहासिक कदम हुआ है। किंतुइसके लिए और अधिक सार्थक प्रयत्नों र्क | आवश्यकता है।
ग्लोबल वार्मिंग पर निबंध – Essay on Global Warming in Hindi
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प्रकृति ने संपूर्ण जीवमण्डल के लिए स्थलजल और वायु के रूप में एक विस्तृत आवरण निर्मित किया है, जिसे हम ‘पर्यावरण’ की संज्ञा देते हैं। पर्यावरण के संतुलन के लिए प्रकृति ने कुछ नियम भी निर्धारित किए हैं, किंतु जब से इस | पृथ्वी पर मनुष्य का अवतरण हुआ है, तब से पर्यावरण संतुलन के प्राकृतिक नियमों का खुला उल्लंघन शुरू हुआ है और निरंतर प्रकृति की अनदेखी के कारण आज हमारे पर्यावरण को अनेक समस्याओं से जूझना पड़ रहा है।
वायु प्रदूषण जलप्रदूषणभूमि प्रदूषणध्वनि-प्रदूषण आदि ने सम्मिलित रूप से संपूर्ण वातावरण को प्रदूषित कर दिया है और इसका परिणाम यह हुआ है कि प्रकृतिप्रदत्त जीवनदायी वायुभूमि और जलत्रितत्व आज जीवन घातक बन गए हैं।
पर्यावरण क्षरण एक बार फिर चर्चा में है, क्योंकि इसको लेकर एक और विश्वस्तरीय महासम्मलेन का आयोजन 1 से 10 दिसंबर, 1997 तक जापान के क्योटो शहर में किया गया। इस सम्मेलन में जिस विषय को केंद्र बनाया गयावह था-विश्वव्यापी तापमान वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग)।
वातावरण में तापमान की वृद्धि वर्तमान विश्व के लिए सर्वाधिक चिंतनीय विषय है, क्योंकि जिस गति से इसकी
वृद्धि हो रही है, वह संपूर्ण जीवसमुदाय के लिए घातक सिद्ध हो रही है। व्यापक उत्परिवर्तनों के बावजूद लम्बी अवधि तक मनुष्य एवं पर्यावरण का संबंध लगभग सौहार्दपूर्ण रहा है और पर्यावरण लगभग अपरिवर्तित रहा। पर्यावरण का संतुलन बिगड़ना शुरू हुआ पश्चिमी देशों की औद्योगिक क्रांति के बाद से मनुष्य की आर्थिक व भौतिक समृद्धि प्राप्त करने की आकांक्षा दिन-बदिन बढ़ती गई और परिणामों को अनदेखा करते हुए वह प्रकृति तथा पर्यावरण का शोषण करने लगा।
औद्योगिक क्रांति ने वायुप्रदूषण को चिंतनीय स्थिति तक पहुंचा दिया। नवीन उद्योगों में कोयले का अंधाधुंध प्रयोग शुरू हुआ। कोयले का प्रयोग विद्युत् उत्पादन के लिए भी होने लगा। इसके परिणामस्वरूप 19वीं और 20वीं सदी के आरंभ में यूरोप एवं अमेरिका के नगरों पर काला आवरण-सा छाने लगा। सेंट पीट्सबर्ग एवं पेंसिलवेनिया सदृश औद्योगिक नगरों में तो वायु प्रदूषण की मात्रा इतनी अधिक हो जाती थी कि वाहन चालकों को दिन में भी हेडलाइट का उपयोग करना पड़ता था।
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इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि, जिस गति से औद्योगीकरण की प्रक्रिया बढ़ रही है, उससे न्यून गति नहीं है वायु प्रदूषण में वृद्धि की। मनुष्य की विलासिता की प्रवृत्ति ने अभी भी उसे प्रदूषण की गंभीरता से अवगत होने से रोके रखा है। प्रशीतन के विश्वव्यापी अनियंत्रित प्रयोग ने वातावरण में क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस की मात्रा बढ़ा दी है और इसके परिणामस्वरूप वायुमण्डल के ओजोनस्तर में छिद्र हो गया है।
इससे पृथ्वी के तापमान एवं मनुष्य के स्वास्थ्य को कितना नुकसान पहुंचेगा, वह अनुमान से परे है। वस्तुतः, मनुष्य प्रकृति से अपने अनुकूलन के बदले प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने की जितनी चेष्टा करेगा, वह पर्यावरण को और फिर उसके परिणामस्वरूप चक्रीय श्रृंखला में अपनी क्षमता को ही नुकसान पहुंचाना शुरू कर देगा।
आज मनुष्य के अनियंत्रित हाथ एवरेस्ट की चोटी से लेकर समुद्री तल तक के लिए प्रदूषण का संकट पैदा करने लगे हैं। वह मात्र अपने अहं की तुष्टि एवं झूठे प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए आणविक विस्फोटों की अनवरत श्रृंखला चला रहा है। जिसके रेडियाधर्मी प्रभाव कई पीढ़ियों के लिए शारीरिक व मानसिक विकृति के वाहक बन सकते हैं। मनुष्य ने ऐसे ही विस्फोटों एवं अन्य औद्योगिक तथा रासायनिक कारणों से प्रकृति के गैसीय संतुलन को कुप्रभावित किया है और उससे पृथ्वी का तापमान तीव्र गति से बढ़ने लगा है, जिससे बर्फ के पिघलने एवं उससे भू-क्षेत्रों के जलमग्न हो जाने की आशंका प्रकट की जाने लगी है। पर्यावरणीय कुष्प्रभावों की वजह से ही वातावरण अब हमेशा असामान्य-सी स्थिति में नजर आता है-कभी गर्मी हद से अधिक बढ़ जाती है, तो कभी ठंड असामान्य रूप से बढ़ जाती है, वर्षा का अनियमित हो जाना भी पर्यावरणीय कुप्रभाव का ही सूचक है।
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पृथ्वी के पर्यावरण में हस्तक्षेप के विनाशकारी परिणाम तापमान वृद्धि के रूप में सामने आ रहे हैं। यदि विश्व-वायुमण्डल में कार्बनडाईऑक्साइडमिथेन और कार्बनमोनोऑक्साइड आदि गैसें छोड़े जाने की वर्तमान गति बनी रही या इसमें और तीव्रता आ गयीतो 21वीं सदी के मध्य (2050) तक भूमण्डल का तापमान 35॰ बढ़ जाएगा। तापमान वृद्धि से आर्कटिक और अंटार्कटिका की बर्फ टोपियां तथा हिमनद पिघलने लगेंगेजिसके परिणाम कितने घातक होंगे, उसकी कल्पना प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है।
एक अनुमान के अनुसार, जिस गति से तापमान में वृद्धि हो रही है, उससे समुद्र के जल स्तर में 3 फीट की वृद्धि हो सकती है।
हाल में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन से ज्ञात होता है कि पृथ्वी के तापमान में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। तापमान वृद्धि के कारण समुद्रों की कार्बन डाइ-ऑक्साइड ग्रहण करने की क्षमता में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। इससे ग्रीन हाउस गैसों का और अधिक विकास होगा और तापमान में और अधिक वृद्धि होगी। समुद्र प्रतिवर्ष वायुमण्डल से लगभग दो अरब टन कार्बन-डाइऑक्साइड को अपने अंदर समेट लेते हैं और इस प्रकार वे ग्रीन हाउस प्रभाव को कम करते हैं।
यहां एक तथ्य ध्यातव्य है कि, जीवाश्म ईंधनों के कारण वायुमण्डल में छह अरब टन कार्बन जाता है। वैज्ञानिकों ने अनुमान किया है कि अगली डेढ़ शताब्दियों में कार्बन स्तर प्रतिवर्ष एक प्रतिशत बढ़ जाएगा और इस कारण वायुमण्डल में गैस की सांद्रता चार गुना बढ़ जाएगी।
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तापमान वृद्धि के प्रति अनदेखी का स्वरूप तब और अधिक भयावह प्रतीत होता है, जब यह तथ्य सामने आता है कि अमेरिका तथा जापान सहित यूरोप के 21 देश (औद्योगिक दृष्टि से विकसित) संपूर्ण विश्व के 20वें भाग में फैले हैं, किंतु वे वातावरण में कार्बनडाइ-ऑक्साइड का 80 प्रतिशत छोड़ते हैं।
वायुमण्डल में छोड़ी जाने वाली ग्रीन हाउस गैसों का लगभग 25 प्रतिशत तो केवल अमेरिका द्वारा ही छोड़ा जाता है। पर्यावरण क्षरण को रोकने के लिए पहले तो रियो डि जेनेरो में वर्ष 1992 में फिर वर्ष 1997 में क्योटो में और वर्ष 1998 में ब्यूनस आयर्स में महासम्मेलन का आयोजन किया जा चुका है।
इन सम्मेलनों में सर्वसम्मति से कोई निर्णय नहीं लिया जा सका, क्योंकि अमेरिका और जापान सदृश देशों ने अपना कोई स्पष्ट रवैया नहीं अपनाया। अमेरिका का तो यहां तक कहना है कि तापमान या मौसम परिवर्तन के लिए पर्याप्त वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं, इसलिए ग्रीन हाउस गैस के नियंत्रण के लिए कानून बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। प्रमुख औद्योगिक देश इसी तर्क के आधार पर ग्रीन हाउस के विस्तार पर रोक लगाने या उसमें कटौती करने के लिए 2010 ई. से तैयार हैं।
इस संदर्भ में एक तथ्य और ध्यातव्य है कि, बहुतसे देश कह रहे हैं कि चीन और भारत तीव्र गति से अपना औद्योगिक विकास कर रहे है, इसलिए वे अपनी औद्योगिक गतिविधियों को नियंत्रित नहीं कर सकते। ग्रीन हाउस गैसों के कुल का 16.5 प्रतिशत इन दोनों देशों द्वारा उत्सर्जित किया जाता है। किंतुयह तर्क देते समय वे यह भूल जाते हैं कि विश्व की कुल जनसंख्या का 16 प्रतिशत भाग भारत में निवास करता है, जबकि कुल जहरीली गैसों का मात्र .5 प्रतिशत ही उसके द्वारा उत्सर्जित किया जाता है।
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