Prerak Prasang in Hindi For Student ?महापुरूषों के श्रेष्ठ प्रेरक प्रसंग

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संसार में जो भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की प्रतिभा से प्रगति की बुलन्दियों पर पहुंचे है उनके हाथ कोई चमत्कार या अलादीन का जादुई चिराग नहीं लग गया था, उन्होंने बहुत परिश्रम लग्नशोलता, कार्य के प्रति सच्ची निष्ठा, धैर्य के साथ अपने उद्देश्य में लगे रहने का मूल मन्त्र था । आज हम आपको बहुत से महापुरूषों के प्रेरक प्रसंग बताएँगे जो की दार्शनिक, लेखक, कवि, आविष्कारक, वैज्ञानिक, सन्त थे और बहुत से लोग सामान्य ग़रीब घरानों में पैदा हुए परन्तु अपनी लग्नशीलता से वे संसार को रोशनी दे गये। प्रेरक प्रसंग मनुष्य के मन-मस्तिष्क को बदल देते हैं, उसके जीवन को सभ्य, सुसंस्कृत और मानवीय करुणा से पूर्ण कर देते हैं। Prerak Prasang in Hindi में पढ़ सकते है जिससे आपको जीवन में बहुत कुछ सिखने को मिलेगा।

ये प्रेरक प्रसंग आपके जीवन में नयी भावनाओं का सञ्चार करेगी, कर्तव्य पथ पर लगे लोगों के लिए मील का पत्थर बनेगी, जो लोग प्रगति का मार्ग ढूंढ़ते हैं, उनका पथ-प्रदर्शक बनेगी।

Prerak Prasang in Hindi For Student ?महापुरूषों के श्रेष्ठ प्रेरक प्रसंग 1

 

Prerak Prasang in Hindi For Student

 

Prerak Prasang No 1# स्त्री जाति का सम्मान (चंद्रशेखर आजाद )

 

Prerak Prasang in Hindi For Student ?महापुरूषों के श्रेष्ठ प्रेरक प्रसंग 2चन्द्रशेखर आज़ाद स्त्री जाति का बड़ा सम्मान करते थे। उन दिनों एक अंग्रेज सम्पादक क्रान्तिकारियों के विरुद्ध बहुत लिखा करता था। इस पर एक साथी ने कहा कि उस सम्पादक को गोली मार दी जाये।

उसने एक योजना भी पेश की कि वह सम्पादक सपत्नीक अमुक समय पर मोटर से गुज़रता है, उसको खत्म कर दिया जाये।

इस पर भैया क्रुद्ध होकर बोले-”स्त्रियों और बच्चों पर हाथ उठाना, क्या यही क्रान्तिकारी का धर्म है?”
साथी चुप रह गया और अपनी भूल स्वीकार की।

 

Prerak Prasang No 2# बच्चों को सुझाव (डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद )

Prerak Prasang in Hindi For Student ?महापुरूषों के श्रेष्ठ प्रेरक प्रसंग 3

राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने एक दिन देखा की उनकी किताब के पन्ने फटे हुए हैं। उन्हें यह समझते देर न लगी कि यह बच्चों का काम है। राजेन्द्र बाबू उनसे बातें कहलवा देना चाहते थे। परन्तु वह चाहते थे कि स्वयं बच्चों पर आरोप न लगायें।
उनकी समझ में ऐसा करने से बच्चों में अपराधी होने की की भावना का उदय होगी।

आखिर उन्हें एक उपाय सूझ ही गया। उन्होंने बच्चों को बुलाकर कहा-‘‘जिस बच्चे न किताब के जितने पन्ने फाडे हैं, उसे उतने पैसे इनाम में दिये जायेंगे।’’ सबने खुशी-खुशी पन्ने फाड़ने की बात बता दी।

उन्हें इनाम भी दिये गये परन्तु साथ ही रोजन्द्र बाबू ने उन्हें समझाया कि पन्ने फाड़ना अच्छी बात नहीं। सारी बात अब बच्चों की समझ में आ गयी थी। उन्होंने अपनी ग़लती कुबूल की और फिर ऐसी गलती न करने का वायदा भी किया।

Prerak Prasang No 3# भगत सिंह के विचार

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भगत सिंह ने फांसी का हुक्म सुनने के बाद नवम्बर 1930 में, अपने प्रिय साथी श्री बटुकेश्वर दत्त को लिखा था। बटुकेश्वर दत्त उस समय मुलतान जेल में थे। भगत सिंह का यह पत्र बड़ा मार्मिक है। उन्होंने अपने मन की सारी बातें कह डाली हैं।

उन्होंने पत्र में लिखा-‘मुझे दण्ड सुना दिया गया है और फांसी का आदेश हुआ है। इन कोठरियों में मेरे अतिरिक्त फांसी की प्रतीक्षा करने वाले बहुत से अपराधी हैं। ये लोग यही प्रार्थना कर रहे हैं कि, किसी तरह फांसी टल जाये, परन्तु उनके बीच शायद मैं ही ऐसा आदमी हूं, जो बड़ी बेताबी से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूं, जब मुझे अपने आदर्श के लिए फांसी के फंदे पर झूलने का सौभाग्य प्राप्त होगा।

मैं इस खुशी के साथ फांसी के तख्ते पर चढ़कर दुनिया को दिखा देंगा कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से बलिदान कर सकते मुझे फांसी का दण्ड मिला है, किन्तु तुम्हें आजीवन कारावास का दण्ड मिला ।

तुम जीवित रहोगे और तुम्हें जीवित रहकर यह दिखाना है कि है क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए केवल मर ही नहीं सकते अपितु जीवित रहकर मुसीबत मुकाबला का भी कर सकते हैं।

मृत्यु सांसारिक कठिनाईयों से साधन नहीं मक्ति का बननी चाहिएअपितु जो क्रान्तिकारी संयोगवश फांसी के फन्दे से बच गये हैं, उन्हें जीवित रहकर दुनिया को यह दिखा देना चाहिए कि वे न केवल अपने आदर्शों के लिए फांसी पर चढ़ सकते हैं,

अपितु जेलों की अन्धकारपूर्ण छोटी कोठरियों में घुलजुलकर निकृष्टतम दरजे के अत्याचारों को सहन कर सकते हैं।’ भगत सिंह के ख़याल कैसे थे? यह इस पत्र से स्पष्ट है।

 

Prerak Prasang No 4# अनुसाशन (डॉक्टर जाकिर हुसैन)Prerak Prasang in Hindi For Student ?महापुरूषों के श्रेष्ठ प्रेरक प्रसंग 5

राष्ट्रपति जाकिर हुसैन दिल्ली स्थित जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के प्राण थे। अपनी खासी उम्र उन्होंने इस विद्या केन्द्र की स्थापना और विकास में लगा दी। बात उन दिनों की है, जब वह इसके प्रधान थे।

जाकिर साहब बड़े अनुशासनप्रिय और को सफ़ाई पसन्द शिक्षाविद् थे। उनकी इच्छा थी कि वहां के छात्र भी साफ़-सुथरे रहें और प्रतिदिन अपने जूतों पर पॉलिश करके आया करें। परन्तु उन्होंने महसूस किया कि विद्यार्थी उनके कहे पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, इसलिए उन्होंने विद्यार्थियों को अच्छा सबक सिखाना चाहा।

एक दिन प्रात छात्रों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि संस्था के साहब विद्यालय के द्वार पर पॉलिश और बुश लिये बैठे हैं। यह देखकर छात्रगण पानी-पानी हो गये।
इस घटना का विद्यार्थियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। अब वे नियम से अपने जूतों पर पालिश करके आने लगे थे। उनमे बेहद अनुशासन भी देखने में आता था।

 

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Prerak Prasang No 5#  दृढ़ संकल्प ( अब्राहम लिंकन )

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लिंकन के नौजवानी के दिनों की घटना है। वह बहुत निर्धन थे, लेकिन उनके अन्दर आगे बढ़ने, कुछ कर गुजरने की बड़ी ललक थी, कठिन संकल्प था।
एक बार उन्हें पता चला कि नदी के दूसरी ओर ओगमोन नामक गांव में एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश रहते हैं, जिनके पास कानून की पुस्तकों का अच्छा संग्रह है। इसलिए लिंकन कड़ाके की सर्दी के दिनों में उस बरौली नदी में नाव में बैठ गये। नाव वह स्वयं खे रहे थे। आधी नदी उन्होंने पार की होगी कि नाव एक बड़े बर्फ के पत्थर से टकराकर चूर-चूर हो गयी। फिर भी साहस के धनी नौजवान लिंकन निराश नहीं हुए। उन्होंने बड़ी मुश्किल से तैरकर नदी पार की और जा पहुंचे रिटायर्ड जज के घर ।

 

इत्तफाक से उस समय जज का घरेलू नौकर भी नहीं , इसलिए था लिंकन को जज के छोटे-मोटे काम भी करने पड़ते। वह जंगल से लकड़ियां बटोरकर लाते और घर में पानी भी भर कर लाते और पारिश्रमिक? पारिश्रमिक के नाम पर सिर्फ एक ही इच्छा कि वह जज की सारी किताबें पढ़ने भर को पा सकें। जज ने खुशी-खुशी उन्हें अपनी पुस्तकें पढ़ने का मौका दिया। संकल्प के धनी लिंकन आगे चलकर अमरीका के राष्ट्रीय जीवन में छाये रहे और देश के सर्वोच्च आसन पर जा विराजे, राष्ट्रपति के रूप में। सच ही है, संकल्प हो, तो आदमी क्या नहीं कर सकता।

Prerak Prasang No 6 # अपना काम स्वयं करो (ईश्वर चन्द्र विद्यासागर)

Prerak Prasang in Hindi

प्रख्यात शिक्षाविद् ईश्वर चन्द्र विद्या सागर को भला कौन नहीं जानता, जिनके त्याग, परोपकार, न्यायप्रियता, क्षमाशीलता के किस्से मशहूर हो चुके हैं। एक दिन एक नवयुवक कलकत्ता स्टेशन पर गाड़ी से उतरा और कुलीकुली पुकारने लगा। हालांकि उसके पास इतना ही सामान था कि वह आसानी से हो सकता था। एक सीधे-सादे सज्जन उनके पास आये और बोले-‘‘कहां चलना है?” वह युवक किसी स्कूल में पढ़ने (ट्रेनिंग के लिए) आया था।

इसलिए उसने स्कूल का नाम बताया। वह सज्जन उसका सामान उठाकर चलने लगे। स्कूल पास ही में था। जल्दी ही वह पहुंच गये। जब वह सामान रखकर जाने लगे, तो उसने उन्हें इनाम देना चाहा। सामान ढोने वाले ने कहा- मुझे कोई इनाम नहीं चाहिए।

अपना काम स्वयं करने की कोशिश करेंयही मेरा इनाम है।” इतना कहकर वह आदमी चला गया।

अगले रोज जब वह विद्यार्थी कॉलेज पहुंचा, तो प्रार्थना स्थल पर उसने देखा कि वह अदमी प्रधानाचार्य के उच्चासन पर विराजमान हैं। उसे काटो, तो खून नहीं। प्रार्थना के बाद जब विद्यार्थी अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गयेतो उसने प्रधानाचार्य के चरणों में अपना सिर रखकर माफी मांगी। प्रधानाचार्य थे-ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, जो किसी भी काम को छोटा नहीं समझते थे।

उन्होंने अपने विद्यार्थी का सामान ढोकर उसे अच्छा सबक सिखाया और अपना काम स्वयं करने की प्रेरणा भी इसी बहाने दी। अब ढूंढे से भी ऐसे प्रधानाचार्य नहीं मिल पाते हैं।

 

Prerak Prasang No 7 # कपड़े के जूते (स्वामी विवेकानंद )

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स्वामीजी के अमेरिका प्रवास की बात है। एक दिन वे एक बगीचे में टहल रहे थे। तभी एक अंग्रेज महिला की नजर उन पर पड़ी। उसने स्वामीजी को गौर से देखा और इठलाती हुई बोली-” आप अन्यथा न लें, तो मैं आपसे एक प्रश्न करू ।”

स्वामीजी बोले-‘हां-हां, जरूर प्रश्न पूछिये।” उसने पूछा-‘स्वामीजी ! आपका सारा परिधान तो भारतीय है, पर आपके कपड़े के जूते तो भारतीय नहीं हैं, फिर आपने ये क्यों पहन रखे हैं?” स्वामीजी सहजता से बोले-“ये जूते जिनकी देन हैं, मैं उन्हें यहीं तक रखना चाहता हूं।

मैं इसीलिए इन्हें पहनता हूं।” महिला शर्म से खड़ी हो गयी। कहां तो चली थी स्वामीजी को भारतीयता का पाठ पढ़नेपर उसे अब अपनी श्रेष्ट ‘ जाति का गया ‘‘की महत्ता पता चल था।

 

Prerak Prasang No 8 # हिन्दी की जीत (चार्ली चैपलिन)

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विख्यात हास्य-अभिनेता चार्ली चैपलिन का पुत्र बीमार था। डॉक्टर ने उसे दवा तो दी, पर साथ ही यह भी कहा। कि उसकी बीमारी कुछ इस किस्म की है कि दवा से भी ज्यादा उसे मनोविनोद की आवश्यकता है, उसके पास हरदम कोई ऐसा व्यक्ति रहना चाहिएजो उसे हंसाता ) रहे। चैपलिन ने अपने एक मित्र को बुला  लिया, जो खुद हास्य-अभिनेता था। वह व्यक्ति चैपलिन के बेटे के पास रहकर न कि मनार जन करता रहा ? एक दिन किसी ने चैपलिन से पूछा-‘‘आप खुद इतने बड़े हास्य अभिनेता हैं, फिर दूसरे को बुलाने की क्या जरूरत पड़ी?”

चैपलिन का उत्तर था-‘‘मैं एक दिन की शूटिंग के हज़ारों डालर लेता हूं। बेटे के पास बैढूंगा, तो व्यर्थ में इतना नुकसान होगा। मेरा मित्र तो मित्रता की खातिर ही मेरे लिए यह कर सकता है।”

 

Prerak Prasang No 9 # गोपाल कृष्ण गोखले

गोपाल कृष्ण गोखले ने देश सेवा के लिए एक संस्था बना रखी थी-‘भारत सेवक समाज’ (सर्वेण्ट्स ऑफ़ इण्डिया सोसायटी)। बम्बई म्युनिसिपैलिटी में एक इन्जीनियर थे, जो इस संस्था में आकर देश सेवा की इच्छा रखते थे। संकोच के नाते उन्होंने गोखलेजी को स्वयं पत्र न लिखकर डॉक्टर देव से एक पत्र लिखवाकर अपना मन्तव्य जाहिर किया। उन्हें शंका थी-कदाचित् गोखलेजी उन्हें अपनी सोसायटी में भरती करेंगे या नहीं। इसी नाते उन्होंने डॉक्टर देव से यह भी कहा कि पहले मैं सोसायटी को प्रार्थना पत्र देंगा, यदि वह मंजूर हो गया, तो म्यूनिसिपैलिटी की नौकरी से इस्तीफा दे देंगा। न मंजूर होने की हालत में नयी नौकरी कहां ढूंढ़ता फिरेगा।

परन्तु गोखले बड़े पारखी थे। वह ठोक बजाकर किसी को भी संस्था में भरती करते थे। इसलिए उन्होंने डॉक्टर देव से इन्जीनियर महाशय को यह कहलवाया कि पहले वह नौकरी से इस्तीफा दे दें, फिर उनके प्रार्थना पत्र पर विचार किया जायेगा। उनकी दृष्टि में इसी कदम से इन्जीनियर की देश सेवा की भावना की परीक्षा हो जानी थी।

परन्तु इन्जीनियर भी था कट्टर देशभक्त। जब उसे गोखलेजी का सन्देश मिलातो उसने नौकरी से त्याग पत्र देने में कोई विलम्ब न किया। फिर उसके प्रार्थना पत्र पर विचार करके गोखलेजी ने उन्हें अपनी सोसायटी में सदस्यता दे दी। यह उस इन्जीनियर के जवानी के दिनों की घटना है, जिसे आगे चलकर सारा हिन्दुस्तान ठक्कर बापा के नाम से जानता था।

Prerak Prasang No 10 # लोकमान्य तिलक

सन् 1907 में सूरत के कांग्रेस अधिवेशन की समाप्ति पर लोकमान्य तिलक जब पूना लौटने के लिए वहां से स्टेशन जाने को तैयार हुएतो लोगों ने सलाह दी-”आप पुलिस की मदद लेकर जाइये। अधिवेशन की सफलता से प्रोत्साहित हो, कुछ बदमाश रास्ते में जमा हैं और वे निश्चय ही आपको चोट पहुंचायेंगे।” तिलक ने सहज- भाव से कहा-‘‘पुलिस की मदद लेकर , पहुंचने के बजायमैं अपने देशवासियों के हाथ मरना अधिक श्रेयस्कर समझुगा। ”

लोकमान्य के जीवन की वह अन्तिम रात थी। डॉक्टर अपनी ओर से पूरी चेष्टा कर रहे थे, परन्तु आशाजनक सुधार दिखाई नहीं पड़ रहा था, रात के लगभग दो बजे उन्हें नयी दवा पिलायी। तिलक महाराज उस समय आंखें बन्द कर लेटे हुए थेपर दवा मुंह में पड़ते ही पूछ बैठे-‘यह क्या पिलाया है मुझे ?” डॉक्टर ने समझा-वे अपनी अचेतनावस्था में ही बोल रहे हैं। अत: बोले-”कुछ तो नहीं, सिर्फ़ नल का पानी था।” तिलक महाराज उस गम्भीर अवस्था में भी मुसकरायेफिर बड़े शान्त स्वर में बोले-‘‘डॉक्टर ! ताज्जुब है, म्युनिसिपल कारपोरेशन को भी मेरी ही बीमारी कैसे लग गयी।’’

Prerak Prasang No 11 # सर्वपल्ली राधाकृष्णन

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एक प्रीतिभोज के अवसर पर अंग्रेजों की तारीफ करते हुए एक अंग्रेज ने कहा ‘‘ईश्वर हम अंग्रेजों को बहुत प्यार करता है। उसने हमारा निर्माण बड़े यत्न और स्नेह से किया है। इसी नाते हम सभी इतने गोरे और सुन्दर हैं।”

उस सभा में डॉक्टर राधाकृष्णन् भी। उपस्थित थे। उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी। अत: उन्होंने उपस्थित मित्रों को सम्बोधित करते हुए एक मनघडंत किस्सा ‘मित्रों ! एक बार ईश्वर का रोटी बनाने का मन हुआ। उन्होंने जो पहली रोटी बनाई, वह जूरा कम सिकी। परिणामस्वरूपअंग्रेजों का जन्म हुआ। दूसरी रोटी कच्ची न रह जाये, इसी नाते भगवान् ने उसे ज्यादा देर तक सेंका और वह जल गयी। इससे नीग्रो लोग पैदा हुए। परन्तु इस बार भगवान् ज़रा चौकन्ने हो गये। वह ठीक से रोटी पकाने लगे। इस बार जो रोटी पकी वह न तो ज्यादा कच्ची थी, न पक्की। ठीक सिकी थी और परिणामस्वरूप हम भारतीयों का जन्म हुआ।”

यह किस्सा सुनकर उस अंग्रेज का सिर शर्म से झुक गया और बाकी लोगों का हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया।

Prerak Prasang No 12 # सुरेन्द्रनाथ बनर्जी

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बंगाल के प्रख्यात राजनीतिक सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के जीवन की घटना है। भारतीय न . स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदानों की ( 3 महीना किसी से छिपी नहीं। एक दिन सायंकाल कलकत्ता में कोई बड़ी राजनीतिक सभा होने वाली थी, जिसे उन्हें सम्बोधित करना था। उसी दिन प्रात: उनके पुत्र का दु:खद निधन हो गया।

सभी सोच रहे थे कि सम्भवत: बनर्जी महाशय आज सभा में आयें ही नहीं, क्योंकि पुत्र शोक में वह विह्वल होंगे। परन्तु लोगों के आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा, जब वह सायंकालीन सभा में ठीक समय पर उपस्थित हुए। उन्होंने सभा को इस अन्दाज़ से सम्बोधित कियामानो कुछ हुआ ही न हो।

Prerak Prasang No 13 #  पट्टाभि सीतारमैया 

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प्रसिद्ध नेता और कांग्रेस गांधीवाद के भूतपूर्व अध्यक्ष डॉक्टर पट्टाभि सीता रमैया अपने सभी पत्रों पर हिन्दी में ही पता लिखते थे। इस कारण से दक्षिण के डाकखाने ति वालों को बड़ी असुविधा होती थी। उन सबने उनको कहला भेजा कि आप अंग्रेजी हैिं, में पता लिखा करेंताकि में डाक बांटने आसानी हो।

डॉक्टर सीता रमैया ने उनसे कहा-‘‘ भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है, अत: मैं अपने पत्र-व्यवहार में उसी का प्रयोग करूंगा।” पोस्ट ऑफिस वालों ने उनको धमकी दी-‘‘यदि आप अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेतो हम आपकी सारी चिट्ठियां डेड लेटर ऑफिस को भेज देंगे।’’ डॉक्टर सीता रमैया पर इस धमकी का कोई असर नहीं हुआ। दोनों के बीच अर्से तक शीतयुद्ध जारी रहा। अन्त मेंडाकखाने वाले झुक ही गये। मजबूरन उन्हें मछली पट्टणम के डाकखाने में एक हिन्दी जानने वाले आदमी को रखना पड़ा। इस तरह जीत हिन्दी की ही हुई।

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Prerak Prasang No 14 #  अमरीकी कृषक (टॉमस जैफरसन)

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अमरीका के तीसरे राष्ट्रपति टामस जैफरसन का जन्म शैडवेल वर्जीनिया प्रान्त में 13 अप्रैल 1743 को हुआ था। जैफरसन कृषकों तथा मजदूरों के सबल समर्थक थे। वह अमरीका में एक आदर्श कृषि प्रधान समाज की स्थापना करना चाहते थे। वह बहुत ही सादगीप्रिय थे तथा अमरीका का राष्ट्रपति बनने के बाद भी बहुत ही साधारण मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत करते थे। एक बार वह एक बड़े से होटल में गये और ठहरने के लिए कमरा मांगने लगे। जैफरसन उस समय किसानों-जैसी साधारण वेशभूषा में थे। होटल मालिक ने उन्हें साधारण मनुष्य समझकर जगह देने से इनकार कर दिया।

वह चुपचाप चले गये। होटल मालिक तो उन्हें नहीं पहचान सका था, पर होटल में उपस्थित एक व्यक्ति ने उन्हें पहचान लिया था और उसी ने होटल मालिक को बताया कि यह तो अमरीकी राष्ट्रपति टामस जैफरसन थे। तुरन्त होटल मालिक ने पीछेपीछे अपने नौकर को दौड़ाया। वह अभी थोड़ी ही दूर गये थे। नौकर ने भूल के लिए अपने मालिक की ओर से उनसे माफी मांगी और होटल चलने के लिए विनती करने ।

लगा लेकिन जैफरसन ने उससे मना करते हुए कहा-‘जाकर अपने मालिक से कह देना कि तुम्हारे होटल में एक अमरीकी किसान के लिए जगह नहीं है, तो भला अमरीकी राष्ट्रपति उसमें कैसे ठहर सकता है?’ इतना कहकर वह दूसरे होटल में ठहरने के लिए चले गये।

 

Prerak Prasang No 15 #  अपना काम स्वयं करो (ईश्वर चन्द्र विद्यासागर)

Prerak Prasang in Hindi

प्रख्यात शिक्षाविद् ईश्वर चन्द्र विद्या सागर को भला कौन नहीं जानता, जिनके त्याग, परोपकार, न्यायप्रियताक्षमाशीलता के के किस्से मशहूर हो चुके हैं। एक दिन एक नवयुवक कलकत्ता ) स्टेशन पर गाड़ी से उतराऔर कुलीकुली पुकारने लगा। हालांकि उसके पास इतना ही सामान था कि वह आसानी से हो सकता था। एक सीधे-सादे सज्जन उनके पास आये और बोले-‘कहां चलना है? वह युवक किसी स्कूल में पढ़ने (ट्रेनिंग के लिए) आया था। इसलिए उसने स्कूल का नाम बताया। वह सज्जन उसका सामान उठाकर चलने लगे।

स्कूल पास ही में था। जल्दी ही वह पहुंच गये। जब वह सामान रखकर जाने लगे, तो उसने उन्हें इनाम देना चाहा। सामान ढोने वाले ने कहा-‘मुझे कोई इनाम नहीं चाहिए। अपना काम स्वयं करने की कोशिश करेंयही मेरा इनाम है।’ इतना कहकर वह आदमी चला गया।

अगले रोज जब वह विद्यार्थी कॉलेज पहुंचातो प्रार्थना स्थल पर उसने देखा कि वह अदमी प्रधानाचार्य के उच्चासन पर विराजमान हैं। उसे काटो, तो खून नहीं प्रार्थना के बाद जब विद्यार्थी अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गये, तो उसने प्रधानाचार्य के चरणों में अपना सिर रखकर माफी मांगी। प्रधानाचार्य थे- ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, जो किसी भी काम को छोटा नहीं समझते थे। उन्होंने अपने विद्यार्थी का सामान ढोकर उसे अच्छा सबक सिखाया और अपना काम स्वय करने की प्रेरणा भी इसी बहाने दी। अब ढूंढे से भी ऐसे प्रधानाचार्य नहीं मिल पाते हैं।

Prerak Prasang No 15 # कमज़ोर मनोबल (महादेवी वर्मा)

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सुप्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री महीयसी महादेवी वर्मा के प्रारम्भिक दिनों की घटना है। एक बार उनके मन में बौद्ध भिक्षा। बनने का विचार आयापर ऐन मौके पर उनका निश्चय बदल गया। ऐसा क्यों ह उन्हीं के शब्दों में सुनिये ‘प्रीवियस में पढ़ती थी।

अचानक मन में विचार आया कि भिक्ष बन जाऊं। मैंने लंका के बौद्ध विहार में महास्थविर को पत्र लिखा। उनसे कहा। कि भिक्षुणी बनना चाहती हूं। दीक्षा के लिए लंका आऊं या आप भारत उन्होंने जवाब दिया-‘हम भारत आ रहे हैं। नैनीताल में ठहरेंगे, तुम वहां आकर मिल लेना।’
मैंने भिक्षुणी बनने का निश्चय कर लिया। अपना सब धन दान कर दिया। जब नैनीताल पहुंचीतो देखा वहां अंग्रेजों का-सा ठाठ-बाट है। मुझे लगा, यह कैसा भिक्षु है, भई ! इतना ताम-झाम ही रखना है, तो भिक्षु काहे को बने। खैर फिर भी मैं गयी।

सिंहासन पर गुरुजी बैठे थे। उन्होंने चेहरे को पंखे से ढक रखा था। उन्हें देखने को मैं दूसरी ओर बढ़ी, उन्होंने मुंह फेरकर फिर से चेहरा ढक लिया। मैं देखने की कोशिश करती और वह चेहरा ढक लेते। कई बार यही हुआ और हमें गुरु का चेहरा दिखाई नहीं दिया।

जब सचिव महोदय हमें वापस पहुंचाने बाहर तक आयेतब हमने उनसे पूछा-‘महास्थविर मुख पर पंखा क्यों रखते हैं?’ उन्होंने जवाब दिया-‘वह स्त्री का मुख दर्शन नहीं करते।’ हमने अपने स्वभाव के वशीभूत उनसे साफ-साफ कहा-‘देखियेइतने दुर्बल आदमी को हम गुरुजी न बनाएंगे।

आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुषकेवल मिट्टी के शरीर को इतना महत्व है कि यह देखेंगेवह नहीं देखेंगे।’ और मैं वापस चली आयी। बाद में उनके कई पत्र आये। बार-बार पूछते-‘आप दीक्षा कब लेंगी।’ हमने कहा-‘अब क्या दीक्षा लेंगे। इतने कमजोर मनोबल वाला हमें क्या देगा।’ और इस तरह महादेवीजी बौद्ध भिक्षुणी बनतेबनते रह गयीं और महादेवी के रूप में हिन्दी जगत् को मिला छायावाद का एक महान् स्तम्भ।

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Written by

Romi Sharma

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