भारत में गरीबी पर निबंध Essay on Poverty in Hindi @ 2018

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हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Essay on Poverty in Hindi पर पुरा आर्टिकल। आज हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है इस आर्टिकल के जरिये हम आपको गरीबी के कुछ ऐसी बातें बातयेंगे जिससे आपको पता चलेगा की हमारा देश पूरी दुनिया से कितना पीछे है। अगर आप गरीबी के ऊपर essay ढूंढ रहे है तो यह आर्टिकल आपकी बहुत मदद करेगा । आईये पढ़ते है Essay on Poverty in Hindi पर बहुत कुछ लिख सकते है।

 

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भारत में गरीबी पर निबंध Essay on Poverty in Hindi @ 2018

निर्धन किसी भी समाज अथवा राष्ट्र के लिए अभिशाप है। निर्धनता मनुष्य के जीवन की वह स्थिति है जब वह जीवन की अनिवार्यताओं से भी वंचित रह जाता है तथा बद से बदतर जीवन व्यतीत करने पर बाध्य हो जाता है। निर्धन व्यक्ति के लिए सारी दुनिया सूनी रहती है। अतः निर्धनता को अनन्त दुःख का प्रतीक माना जाता है। आज के इस भौतिक युग में जहाँ एक ओर लोगों के पास धन के भण्डार भरे पड़े हैं वहाँ निर्धन के पास इसका नितान्त अभाव रहता है।

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स्वतंत्रता के 64 वर्ष पूरे होने पर भी हमारे देश के अधिकांश भाग में निर्धनता का बास है। देश के स्वतंत्र होने के बाद से हमें जिस दैत्य का सामना करना पड़ रहा है वह है निर्धनता। हमारे देश में कर्णधारों ने इसी को नष्ट करने के लिए ‘आराम हराम है’ का नारा लगाया। स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने इसे मिटाने गरीबी हटाओ’ का आह्वान किया। उन्होंने इसके लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण तथा भूतपूर्व राजाओं के प्रीवीपर्स तक बन्द किए। उन्होंने इसके अतिरिक्त निर्धनता को समाप्त करने के लिए और भी अनेक कार्यक्रम अपनाए जैसे शहरी सम्पत्ति पर सीमानिर्धारण, रोजगार के नए प्रयोजनबीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण करना आदि।

देश में इस घोर निर्धनता के अनेक कारण हैं-पहला कारण है देश में सम्पत्ति का असमान वितरण, एक ओर धनी वर्ग धनी होता जा रहा है तथा निर्धन नित्य प्रति निर्धन होता जा रहा है। धनवान तो महलों में सुख भोग रहे हैं और उनके तो कुत्ते भी दूध पी रहे हैं दूसरी ओर निर्धनों के बच्चे रूखेसूखे टुकड़ों को तरस रहे हैं। दूसरा कारण है देश में जनसंख्या की असाधारण वृद्धि । तीसरा कारण लोगों में राष्ट्रीय भावना की कमी होना; परिणामतः आए दिन राष्ट्रीय सम्पत्ति का विनाश जिसके पुनर्निर्माण में धन का अपव्यय। जिसके कारण निर्धनों के हिस्से का पैसा व्यर्थ हो जाता है। चौथा कारण है देश में व्याप्त भ्रष्टाचार बड़ेबड़े भ्रष्टाचारी व्यापारी विदेशों में अपने बैंक खाते खोलकर विदेशियों का पेट भर रहे हैं तथा अपने देश को निर्धन बना रहे हैं। पांचवा कारण है देश में कृषि व उद्योगों का उत्पादपन कम होना। देश के कुटीर उद्योग प्राय: नष्ट से हो रहे हैं तथा कृषि पुराने ढंग से की जा रही है। उत्पादन में वृद्धि की तुलना में जनसंख्या में वृद्धि का होना भी विशेष रूप से निर्धनता का कारण है।

इसे दूर करने के लिए सर्वप्रथम कृषि व कुटीर उद्योगों का विकास करके उत्पादन को बढ़ाना होगा। दूसरा तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या पर अंकुश लगाना होगा। हमें प्रयत्न करना चाहिए कि विदेशी ऋण लेने के बजाय अपने आप को स्वावलम्बी बनाएँ। हमारे देश के प्रधानमंत्री व अन्य नेतागण इस बात के लिए कृतसंकल्प हैं कि वे देश से निर्धनता के दैत्य को भगाकर ही दम लेंगे।

भारत में गरीबी पर निबंध Essay on Poverty in Hindi @ 2018

 

एक प्रगतिशील राष्ट्र के विकास का सबसे महत्वपूर्ण मापदण्ड गरीबी उन्मूलन की दिशा में सफलता मिलना है। भारत एक समृद्ध देश है, लेकिन यहाँ के निवासी गरीब हैं। इसकी गिनती विश्व के 10 गरीब देशों में सबसे ऊपर की जाती है। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद सभी सरकारों का प्रमुख लक्ष्य भारत में नागरिकों को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराना तथा गरीबो का समूल नाश करना रहा है। हमें इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली है। विकास दरों में वृद्धि के साथ-साथ देश की जनसंख्या में गरीबी का प्रतिशत भी कम हुआ है। लेकिन इसके बावजूद आज भी गरीबी की स्थिति गंभीर बनी हुई है। भारत एक कृषिप्रधान देश है तथा गरीबी का स्वरूप मुख्य रूप से ग्रामीण है। हमारे देश के तीन-चौथाई गरीब ग्रामीण इलाकों में बसते हैं।

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पिछले पच्चीस सालों से गाँवों और शहरों की दशा एवं दिशा लगभग एकसमान रही है। 1970 से 1990 के शुरुआती वर्षों में भी यह असमानता देखी जा सकती है। केरलआंध्रप्रदेश, गुजरात, पश्चिमी बंगाल में गरीबी में तेजी से कमी आईजबकि बिहार एवं उत्तर प्रदेश इस मामले में पिछड़े रहे हैं। गरीबी की दर में कमी आने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं (1) कृषि क्षेत्र का तेजी से विकास-कृषि क्षेत्र में तेजी से विकास होने के कारण खाद्यान्नों की कीमतों में कमी आई तथा कृषि श्रमिकों के वेतनमानों में वृद्धि हुई।

हमारे सकल घरेलू उत्पाद की दर भी 3.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी तथा गरीबी में कमी आनी शुरू हो गई। (2) मुद्रास्फीति-खाद्यान्नों की कीमतों में वृद्धि का कारण मुद्रास्फीति की दरों का बढ़ना है। यदि मुद्रास्फीति की दरें बढ़ती हैं, तो खाद्यान्नों के दामों में भी वृद्धि होती है। कीमतों में वृद्धि के कारण गरीबी बढ़ती है। अत: गरीबी की दरों का एक मुख्य कारण मुद्रास्फीति की दरों में कमी आना भी है।

मानव संसाधन विकास की भूमिका मानव संसाधन विकास की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका प्रभाव गरीबी दर पर पड़ता है और इसका विकास काफी हद तक गरीबी की दर को कम करता है। इसका सफल उदाहरण हमें केरल के संबंध में दिखाई देता है। केरल में सकल घरेलू विकास की दर ऊँची नहीं थी। यहाँ अर्धकुशल श्रमिकों का बड़े पैमाने पर प्रवास हुआ तथा इन श्रमिकों को होने वाली आय की वजह से गरीबी दरों में भी कमी आई1990 के दशक के मध्य से गरीबी दर में बहुत धीमी गति से कमी हुई है। वर्ष 1993-94 में यह दर 35 प्रतिशत थी तथा 1997 में यह घटकर 34 प्रतिशत हुई।

कृषि क्षेत्र की विकास दर ऊंची रही तथा सामाजिक सूचकांकों में भी सुधार हुआ। इसके बावजूद गरीबी अपेक्षाकृत धीमी गति से कम हुई। बदलाव के अन्य कारणों को समझने के लिए हमें मुद्रास्फीति, कृषि विकास एवं विकास की राज्यवार असमानताओं को हाल की आर्थिक | गतिविधियों के संदर्भ में समझना होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि मुद्रास्फीति की दर यदि बढ़ती है तो इसके साथ गरीबी भी बढ़ती है। 80 के दशक में मुद्रास्फीति की दर 90 के दशक से कम थी। इस वजह से 90 के दशक में खाद्यान्नों की कीमतें ऊंची रही, जिसके कारण गरीबी दरों में गिरावट कम हुईइस प्रकार हम देखते हैं कि गरीबी निवारण के क्षेत्र में मिली सफलता केवल आंशिक है। देश की गरीबी को कम करने के लिए कुछ कठोर निर्णय लेने की आवश्यकता है।

गरीबी दर को कम करने तथा इस समस्या से निपटने के लिए हमें अपनी साक्षरता दर को ऊपर उठाने की आवश्यकता है, जिसके लिए हमें अधिक से अधिक बच्चों को साक्षर बनाना हागा। देश की आर्थिक, कानूनी एवं राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी होगी। विकास के लिए आवश्यक आधारभूत ढाँचे को सुदृढ़ करना होगा। इसके अतिरिक्त, सामाजिक क्षेत्र में अधिक सक्रियता की जरूरत है। उत्पादन एवं सेवा क्षेत्रों को क्रमश: निजी क्षेत्र को सौंप देना चाहिए तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर सरकार को अपना पूरा ध्यान देना चाहिए। इनके विकास की समुचित सुविधा करनी चाहिए तथा इस क्षेत्र का सर्वागीण विकास करना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाना चाहिए।

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मानव संसाधन के विकास को बढ़ावा देना चाहिएइसके समुचित विकास के बिना गरीबी हटाई नहीं जा सकती। सरकार को विभिन्न क्षेत्रों में दी जा रही सब्सिडी में कटौती करनी होगी, ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी उन्मूलन, आधारभूत ढाँचा आदि क्षेत्रों के लिए अधिक पूंजी उपलब्ध कराई जा सके। इसके साथ ही ऊर्जा एवं सिंचाई क्षेत्रों का निजीकरण आवश्यक अभिशासन के विभिन्न स्तरों एवं पहलुओं में सुधार लाने की आवश्यकता है। विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया से ही अभिशासन में वांछनीय सुधार लाया जा सकता है।

इसके साथ उत्पाद श्रम एवं बाजार का नियंत्रण भी समाप्त करना होगा। तभी विकास में सुधार होगा तथा गरीबी की दरों में गिरावट आएगी। ऊँची विकास दर तथा निम्न गरीबी दर प्राप्त करने के लिए आधारभूत ढाँचे का मजबूत होना जरूरी है। इस क्षेत्र में निजी एवं सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की भागीदारी आवश्यक है। यदि हम इन सब पर विचार करके इन्हें व्यावहारिक रूप में कार्यान्वित करें तो नि:संदेह ही गरीबी का उन्मूलन हो सकेगा

 

भारत में गरीबी पर निबंध Essay on Poverty in Hindi @ 2018

 

प्रस्तावना: वर्ष 1996-97 में राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त कई भ्रम टूटे हैं। विगत चुनावों के परिणामों ने देश के सभी राजनीतिक दलों की कलई खोल दी है। अचानक यह रहस्य भी बेपर्दा हो गया कि गरीबी घटी नहीं, बल्कि बढ़ी है। आने वाले समय में यह देश की सबसे गम्भीर समस्या होगी। चिन्तनात्मक विकासः वर्तमान समय में चहुं ओर से गरीबी मिटाने की बात सुनाई देती , पर क्या मौजूदा आर्थिक व्यवस्था के दायरे में गरीबी मिटाना सम्भव है? अगर सम्भव है। तो उसके लिए नीति सम्बंधी दिशा क्या हो सकती है?

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पहली बात यह कि गरीबी के उन्मूलन और जनता की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए तीन चीजें जरूरी हैं। पहली यह कि विकास की दर पर्याप्त रूप से ऊँची हो, जिससे उपभोग के लिए कुल उपलब्ध साधनों में उपयुक्त ढंग से बढ़ोतरी होती रहे।

दूसरे यह विकास ऐसे ढंग से होना चाहिएजिससे खुद विकास की प्रक्रिया उपभोग के इन साधनों का काफी हद तक समानतापूर्ण वितरण सुनिश्चित कर सके। तीसरेइस तरह का विकास हासिल करने के दौरान भी, गरीबी उन्मूलन के कुछ फौरन तथा अन्तरिम कदम उठाये जाने चाहिएताकि गरीबों को इस विकास के फल अपने पास तक पहुँचने का इन्तजार न करना पड़े। उपसंहारः आज गरीबी की समस्या जटिलतम होने की पूरी सम्भावना है। अगर इस समस्या पर समय रहते पुनर्विचार नहीं किया गया और इसे राजनीतिक आर्थिक चर्चा के केन्द्र में फिर से नहीं लाया गयातो पूरा देश भयावहअसन्तुलित और अन्यायकारी ‘कथित समृद्धि’ के रास्ते पर बढ़ लेगाजिसका अंतिम परिणाम किसी भी तरह लाभकारी नहीं होगा।

गरीबी का उन्मूलन कमी एक महान लक्ष्यएक पवित्र धर्म समझा जाता था, लेकिन पिछले कुछ समय से गरीब और उसकी गरीबी, दोनों राजनीतिक खेलों के मोहरे बन गए हैं। जैसे जिसकी गोटी ठीक बैठ जाएउसी ढंग से राजनीतिक दल और एक के बाद एक बनी सरकारें भी गरीबों को दांव पर लगाती रही हैं और अब भी लगा रही हैं। इससे राजनेताओं की अपनी खिचड़ी तो पक जाती है, लेकिन गरीब भूखा ही रहता है। फुटबॉल की तरह ठोकरें तो गरीब खाता रहा है, लेकिन जीत का श्रेय अथवा हार का दोषदूसरों को मिलता रहा है।

अधिक पीछे न जाएं और पिछले ढाई दशकों में गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को ही देखें तो परिणाम यही दिखाई देता है कि देश में गरीबी का पुनः अवतरण हो गया है और हम राजनीतिक रूप से फिर गरीबी हटाओ’ युग में पहुंच गए हैं। अगर यह रहस्योद्घाटन हो जाए कि जिन करोड़ों व्यक्तियों की आंखों के आंसू पोंछने के लिए बापू ने अहिंसक आन्दोलन चलाया था, उनकी संख्या और उनकी आंखों में आंसुओं की मात्रा घट नहीं बल्कि तेजी से बढ़ रही है, तो देश में प्रतिवर्ष मनाये जाने वाला उत्सव एवं समारोह निरर्थक और बेमानी से लगने लगते हैं।

 

देश के आर्थिक विकास के लिए हमने पंचवर्षीय योजनाओं के सहारे सुनियोजित कार्यक्रम चलाए और अब हम नौवीं पंचवर्षीय योजना की तैयारी में लगे हैं, लेकिन इसी दौरान यह पता लगने पर कि समाज के जिन वर्गों का उत्थान इन योजनाओं का लक्ष्य रहा है, उनकी सही स्थिति और संख्या का भी पता नहीं है, योजनाकारों के सारे कार्यक्रम अस्तव्यस्त हो गए हैं। देश में गरीबों की असली संख्या कितनी है, वे किस नारकीय दशा में रहते हैं, उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटीकपड़े की समस्याओं का क्या हल है, इसका सही आकलन जब तक नहीं होगा, तब तक उन समस्याओं का निदान कैसे हो सकेगा।

यह दुविधा योजनाकारों के सामने आज भी है लेकिन इसका कोई ठोस उपाय खोजने के बजाएअब भी राजनीतिक नजरिए से, वोटों के हानि-लाभ की नजर से इस समस्या को हल करने की चेष्टा की जा रही है। लोकसभा के पिछले आम चुनावों से कुछ पहलेसरकार ने दावा किया था कि देश का आर्थिक विकास तेजी से हो रहा है, लोगों को भरपेट खाना मिलता है, अनाज का निर्यात होने लगा है। और कंगाली गरीबी की रेखा से नीचे) की हालत में रहने वालों की संख्या अब केवल 18 प्रतिशत रह गई है।

दस वर्ष पहले यह संख्या ग्यारह प्रतिशत अधिक थी। तब देश को आशा बंधी थी। कि गरीबी अगर इसी तेजी से मिटती रही तो जल्दी ही देश में कोई गरीब नहीं रहेगा। लेकिन जब नौवीं योजना की तैयारी चलने लगी और ठोस धरातल पर पैर रखने का समय आया तो पता चला कि गरीब कम नहीं हो रहे, आंकड़ों और फार्मूलों के आवरण से उन्हें लुप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।

यह आवरण जब उठाया गया तो स्पष्ट हुआ कि अवास्तविक पैमाने बनाकर केवल चुनावी हित के लिए गरीबी की भयावहता को ढकने का प्रयास किया जा रहा था। लेकिन कोई भी आंकड़ा दिया जाएउससे वास्तविकता को छुपाया नहीं जा सकता। गरीब तो गरीब ही रहेगा, भले ही सरकारी फाइलों में उसे कितना ही सम्पन्न बना दिया जाए। गरीबी मिटाने का दावा करके, गरीबों की संख्या कम करके दिखाने से राजनीतिक लाभ क्या मिला यह अलग विश्लेषण का विषय है किंतु इतना निश्चित है कि इससे गरीब लाभान्वित नहीं हुआ, वंचित अवश्य हुआ है और हमारी पूरी विकास प्रक्रिया को आघात लगा है। राजनीतिज्ञों को अब यह सोचना ही होगा कि अपने तात्कालिक लाभ के लिए वह देशवासियों के दीर्घकालिक हितों की कितनी बलि दे सकते हैं।

 

देश के गरीब के सिर पर सबसे भारी बोझ उस कर्ज का है जो उसने अपनी तात्कालिक जरूरतें पूरी करने के लिए गांव के साहूकार से लिया है। जिसके पास आज खाने भर के लिए अनाज नहीं है, वह कल इस स्थिति में कैसे आ जाएगा कि अपना पेट भी मरे और कर्ज भी वापस करे। उसकी इसी असमर्थता को देखकर सरकारी बैंक भी उसे सस्ती दर पर कर्ज देने को तैयार नहीं हैं। सरकारी खानापूर्ति के लिए जिन्हें बैंक से कर्ज मिल भी जाता है उनसे उसकी वसूली के लिए जो तरीके अपनाए जाते हैं, वे रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं। ऐसे कारनामे रोज पढ़ने सुनने में मिल जाते हैं। लेकिन देश के गरीब पर इससे भी बड़ा एक अप्रत्यक्ष बोझ है।

 

 

गरीब को उस कर्ज का रंच मात्र भी लाभ तो नहीं पहुंचा जो सरकार ने घरेलू और विदेशी संसाधनों से लिया है। लेकिन कर्ज की वापसी के लिए वह भी बराबर का जिम्मेदार माना जाएगा। भारत आज दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कर्ज लेने वाला देश बन गया है। भारत पर इस समय लगभग साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये का केवल विदेशी कर्ज चढ़ा हुआ है अर्थात् हर भारतीय नागरिक पर इस समय लगभग साढ़े तीन हजार रुपए का ऐसा कर्ज है जिसका उसने उपभोग नहीं किया है। जिस गरीब की आय 240 रुपए मासिक भी नहीं है, उसके लिए यह कर्ज उतारना शायद कई पीढ़ियों का काम हो जाएगा।

इस हालत से निपटने के लिए हमें अपनी नीतियों में बदलाव लाने होंगे। अगर संगठित औद्योगिक क्षेत्र में एक करोड़ रुपए लगाए जाएं तो उससे मुश्किल से चालीस लोगों को रोजगार मिलेगा लेकिन वही घन अगर ग्रामीण उद्योगों में लगाया जाए तो दो सौ से अधिक पांच गुना अधिक) लोग रोजगार पा सकते हैं। यह याद रखना होगा कि अब भी चालीस प्रतिशत से अधिक निर्यात आय इन्हीं छोटे उद्योगों से होती है। आजकल बाजार की अर्थव्यवस्था का बोलबाला है।

इसी का दूसरा नाम विश्व स्पर्धा है इसमें हर वस्तु के मूल्य मांग और आपूर्ति के अनुरूप तय किए जाते हैं लेकिन जो व्यक्ति इतना दरिद्र है कि अपना पेट नहीं भर सकताउसे इस विश्व स्पर्धा बाजार के हवाले कर देना क्या किसी भी सभ्य समाज के लिए शोभा की बात होगी? गरीबों के उत्थान के लिए अब तक जो भी घोषणाएं की जाती रही हैं, सरकार ने जो भी वचन अब तक दिए हैं, उनके अनुरूप काम नहीं हुआ है। योजनाएं और कार्यक्रम या तो रास्ते में धराशायी हो गए या उन्हें मात्र औपचारिकता वश चलाया गया। गरीबी उन्मूलन की विफल योजनाओं पर पर्दा डालने के लिए उन्हें नएनए नामों से प्रचारित किया जाता रहा , लेकिन सरकार की कथनी और करनी में जो अंतर रहा है, उससे गरीबों के मन में हताशा और कुंठा उत्पन्न हुई है।

अधिकांश पश्चिम देशों में सरकारी आश्वासनों और मौखिक सहानुभूति से त्रस्त गरीब अपराधों की शरण में चले जाते हैं। भारत में भी सामाजिक अपराधों में वृद्धि का मूल इसी गरीबी में ढूंढा जा रहा है। अभी यहां जनता के धैर्य का बांध छलक अवश्य रहा है, टूटा नहीं है। इसलिए अब भी समय है कि हम अपनी नीतियों में ऐसे मोड़ ले आएं जिनसे समाज के निम्नतम स्तर के व्यक्ति का जीवनस्तर भी ऊपर उठ सके ।

 

 

Written by

Romi Sharma

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