हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Essay on rajendra prasad in Hindi पर पुरा आर्टिकल। आज हम आपके सामने rajendra prasad के बारे में कुछ जानकारी लाये है जो आपको हिंदी essay के दवारा दी जाएगी। आईये शुरू करते है डॉं० राजेंद्र प्रसाद पर निबंध
Essay on rajendra prasad in Hindi
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। वे भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठ मान्यताओं के मूर्तिमान स्वरूप थे। सरलता तथा सादगी के प्रतीक राजेन्द्र बाबू को गांधीजी अजातशत्रु (जिसका शत्रु पैदा ही न हुआ हो) और देशरत्न कहते थे। सरोजिनी नायडू ने उनकी गुणावली को जानते हुए अपनी काव्यमयी भाषा में उनके बारे में लिखा है कि वे ऐसे महापुरूष थे जिनकी लेखनी से भी कटुतापूर्ण कोई शब्द कभी नहीं लिखा गया।
3 दिसम्बर 1884 को एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में बाबू राजेन्द्र प्रसाद का जन्म बिहार राज्य के सारन जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। मेधावी होने के कारण अध्यापक तथा उनके सम्पर्क में आने वाले सभी जन उनके गुणों और प्रतिभा के कायल थे। वकालत की डिग्री लेकर कलकत्ता एवं पटना उच्च न्यायालय में आपने वकालत कर धूम मचा दी। सन् 1917 में चम्पारन में गांधी जी के सम्पर्क में आते ही वकालत छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। आजादी से पहले सन् 1946 में बनी पहली अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार में खाद्य आपूर्ति एवं कृषि मंत्री बनाए गए फिर 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान के अस्तित्व में आने पर भारतीय गणतंत्र में प्रथम राष्ट्रपति बने और लगभग 12 वर्षों तक इस पद को सुशोभित किया।
कुछ बातों को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के मध्य कुछ मतभेद उभरने शुरू हो गए थे। एक के मन में भारतीय भाषाओं के प्रति अगाध निष्ठा थी किन्तु प्रधानमंत्री जी की सारी शिक्षा-दीक्षा पाश्चात्य ढंग से हुई थी, इसलिए वे हिन्दी की बात तो करते थे, हिन्दी में बात भी करते थे किन्तु हिन्दी को सरकारी कामकाज में अपनाने की बात मन से स्वीकार नहीं करते थे। उनकी वजह से सन् 1950 में, 15 वर्ष की अवधि के बाद हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने का वादा 60 साल बाद भी पूरा नहीं हो पा रहा है। राजर्षि टंडन तथा राजेन्द्रबाबू इस अवधि के पक्षधर नहीं थे।
हिन्दू कोड बिल के विषय में दोनों नेताओं के वैचारिक मतभेद इतने खुल गए थे कि पं. जवाहर लाल नेहरू की जिद के कारण अन्ततः उसे संसद से खण्डों में पारित करवाना पड़ा। राजेन्द्रबाबू नहीं चाहते थे कि तिब्बत चीन को सौंपा जाए। सन् 1962 में चीन के द्वारा किए गए आक्रमण को उन्होंने उस पाप का परिणाम बताया था जो चीन को तिब्बत सौंप कर किया गया था। राजेन्द्रबाबू, मई 1962 में राष्ट्रपति के पद का कार्यकाल समाप्त होने के पश्चात् सदाकत आश्रम, पटना चले गए थे। 22 फरवरी, 1963 को एक महान् रिक्ति छोड़कर वे पंचतत्व में विलीन हो गए।
डॉं० राजेंद्र प्रसाद पर निबंध
चक्की में पिसता हुआ राष्ट्र इनकी वरद छत्रच्छाया में फूला न समाया। तब से 1962 की 13 मई अँगरेज-दुश्शासन के विरुद्ध रणतूर्य बज उठा। साबरमती के संत महान राजनीतिज्ञ महात्मा गाँधी ने उदघोष किया—मुझे देश के कोने-कोने से महारथी चाहिए। जनक और याज्ञवल्क्य, गौतम और महावीर, चाणक्य और चंद्रगुप्त के बिहार ने कहा-सब मणिरत्नों के ऊपर मेरा यह लघुदान! और, उसने इस राष्ट्रीय दान के रूप में राजेन्द्र को आगे बढ़ा दिया। किंतु, आज भारत का प्रत्येक शिशु जानता है कि यह दान कितना कीमती था— सबसे अनूठा, सबसे निराला! बिहार राज्य में भी सौभाग्यशाली है सीवान जिले की जीरादेई की वह धरती, जिसकी धूल में लोट-लोटकर बड़े हुए थे, हमारी आँखों के तारे देशरत्न राजेंद्र प्रसाद। इनकी प्रारंभिक पढ़ाई उर्दू-फारसी के माध्यम से हुई। 1902 में ये इंट्रेन्स परीक्षा में बैठे तो कलकत्ता विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम हुए। इसके बाद इन्होंने एफ.ए., बी.ए., एम.ए. तथा M A की उपाधियाँ प्राप्त की। यदि किसी भारतीय नेता के विद्यार्थी-जीवन में उसकी उत्तरपुस्तिकाओं का परीक्षण कर यह अभिशंसा की गयी हो कि ‘परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक योग्य है’ तो वे हैं आदर्श कुशाग्रबुद्धि राजेंद्र बाबू ही।
राजेंद्र बाबू अपने विद्यार्थी जीवन से राज में भाग लेते थे। कलकता (कोलकाता) में 1906 में इन्होंने छात्रों को संगठित करने के लिए ‘बिहारी क्लब’ स्थापित किया था। 1905-06 में बंग-भंग की घटना ने इन्हें बड़ा पीड़ित किया और इनके मन में अँगरेजों से लोहा लेने का संकल्प दृढ़ होने लगा। काँग्रेस के लखनऊ-अधिवेशन में महात्मा गाँधी की दृष्टि इनपर पड़ी। 1917 में जब महात्मा गाँधी चम्पारण-आन्दोलन के सिलसिले में बिहार आये तब इन्होंने पूरा सहयोग दिया। लोग इन्हें बिहार का गाँधी’ कहकर पुकारने लगे।
1919 में पंजाब में जालियाँवाला-कांड हुआ। इस कांड से द्रवित होकर अंगरेजों से जूझने के लिए राजेंद्र बाबू ने बिहारी स्वयंसेवकों की एक विशाल वाहिनी निर्मित की। पटना में जब सदाकत आश्रम’ की स्थापना हुई तब काँग्रेस ने इन्हें अपना महामंत्री बनाया। 1942 की अगस्त-क्रांति में ये तीन वर्ष के लिए कारागार में धकेल दिये गये। जैसे सोना तपने पर कुंदन बन जाता है, वैसे ही तपकर ये और दमक उठे।
1945 में इन्होंने शिमला-कॉन्फ्रेन्स में भाग लिया। इसमें इन्होंने अत्यधिक कार्यकुशलता दिखलायी। अब स्वतंत्रता की लालिमा छिटकने ही वाली थी। राष्ट्र-संचालन के निमित्त विधाननिर्मात्री सभा का आयोजन हुआ। उसके ये अध्यक्ष चुने गये। 1946 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में इन्होंने खाद्यमंत्री का पदभार सँभाला।
भारत में गणतंत्र का सूरज चमका, तो सारे राष्ट्र ने इनकी त्याग-तपस्या के वशीभूत होकर 1950 में इन्हें पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र के राष्ट्रपति-पद पर आसीन किया। शताब्दियों से परतंत्रता की तक ये भारत के गौरवगढ़ के सर्वमान्य अधिपति बने रहे।
इस अवधि में इन्होंने अनेक कार्य किये। इनका सक्रिय सहयोग पाकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सारे संसार में ‘पंचशील’ का संदेश देते रहे।
1962 में इनकी आयु 78 वर्ष की हो चुकी थी (जन्म 3 दिसम्बर 1884 है)। इनका स्वास्थ्य बहुत गिरने लगा और ये सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को अपने पद पर सुशोभित कर, दिल्ली के भव्य प्रासाद को छोड़कर सदाकत आश्रम की अपनी पुरानी कुटिया में आ विराजे। जहाँ से इन्होंने राजनीतिक जीवन और तूफानी कार्यक्रम का आरंभ किया था, वहीं रहकर इन्होंने अपना शेष शांत जीवन बिताने का विचार किया। किंतु, परमात्मा ने इन्हें बहुत दिनों तक हमारे बीच रहने नहीं दिया। 28 फरवरी 1963 को इन्होंने पटना के सदाकत आश्रम में अंतिम साँस ली। इनकी शवयात्रा में लाखों की भीड़ उमड़ चली थी। जिस पथ पर खड़े होकर लोगों ने कभी चंद्रगुप्त, अशोक, बुद्ध और महावीर की क्षणविदाई सही होगी, उसी पथ पर दौड़-दौड़कर अश्रुओं का अर्घ्यदान देकर लोगों ने अपने राष्ट्रदेवता देशरत्न को अंतिम विदाई दी।
राजेंद्र बाबू ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ में विश्वास रखते थे। राष्ट्रपति-भवन के ऐश्वर्यमय वातावरण में रहकर भी इनके विश्वास पर कोई आँच नहीं आयी। देश पर जब-जब विपत्तियों के बादल मँडराये, इन्होंने अपनी छिंगुनी पर गोवर्द्धन उठाकर उसकी रक्षा की। जब-जब इन्हें प्रताड़नों के अनल में जलाया गया, ये उसे प्रह्लाद की तरह हँस-हँसकर चंदनवत शीतल बनाते रहे। अनाचारों का चक्रव्यूह भेदने में ये सदा समर्थ महारथी सिद्ध हुए। राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए इन्होंने जो कुछ किया है, उसे हम भूल नहीं सकते। राष्ट्रभाषा के के आह्वान पर अपने स्वास्थ्य की परवाह न कर ये दौड़ पड़ते थे। इन्होंने मनसा-वाचा-कर्मणा हिंदी की सेवा की। इनकी खंडित भारत’, ‘आत्मकथा’, ‘बापू के कदमों में’, ‘गाँधीजी की देन’, ‘साहित्य और संस्कृति’ जैसी रचनाएँ हिंदी का श्रृंगार करती हैं।
आज बिहार की भूमि बहुत उदास है। पता नहीं, वह राष्ट्रदेवता को देशरत्न राजेंद्र जैसा प्रतिभासंपन्न सपूत फिर कब दे पायेगी।
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