आज का टॉपिक सभी के लिए जुड़ा हुवा है क्योकि हर किसी का कोई ना कोई पसंद का Teacher होता है जिसको हर कोई स्कूल और कॉलेज के बाद भी याद करते है।
आईये पढ़ते है Teacher के ऊपर Essay जो की हिंदी में है। आप हमारे और बहुत Hindi Essay पढ़ सकते है
Essay on Teacher in Hindi
प्रस्तावना :
किसी भी समाज तथा राष्ट्र का भविष्य उसके विद्यार्थियों | पर निर्भर करता है क्योंकि आज का विद्यार्थी ही कल का जिम्मेदार नागरिक | बनता है। एक अच्छा विद्यार्थी अध्यापक की ही देन होता है। जिस समाज और राष्ट्र के अध्यापक आदर्श, सुयोग्य तथा चरित्रवान होते हैं, वह राष्ट्र या देश बहुत अधिक सौभाग्यशाली होता है। इसलिए अध्यापक ही कल के आदर्श राष्ट्र निर्माता होते है।
आदर्श अध्यापक की विशेषताएँ :
एक आदर्श अध्यापक सुयोग्य, चरित्रवान, निष्ठावान, कर्तव्यपरायण, समय का सदुपयोगी तथा दयालु हृदय होता है। वह दीन-दुखियों तथा निर्धन विद्यार्थियों की सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहता है। वह सच्चे अर्थों में विद्वान होता है क्योंकि वह अपने विषय में पूर्णतया पारंगत होता है। वह अपनी विद्वता पर अभिमान भी नहीं करता, वरना हमेशा दूसरों की सहायता के लिए तैयार रहता है। उसका मुख्य ‘उद्देश्य अपने शिष्यों का चरित्र-निर्माण करना होता है। यदि हर शिष्य को ऐसा ही अध्यापक मिल जाए, तो उसकी जीवन नैया आसानी से पार उतर सकती है।
आदर्श अध्यापक के कर्तव्य :
आदर्श अध्यापक को हमेशा अपने निजी स्वाथों से ऊपर उठकर समाज तथा राष्ट्र के विकास के बारे में सोचना चाहिए। जाद अध्यापक को कभी भी लोभ या मोह में फँसकर केवल पैसा कमाने के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए अपितु विद्यार्थियों के भविष्य को ध्यान * रखते हुए अपना सारा ध्यान उन्हीं के उत्थान में लगा देना चाहिए। हमारा इतिहास ऐसे गुरुओं से भरा पड़ा है जिन्होंने शिष्यों के उत्थान के लिए अपना तन, मन, धन सब कुछ अर्पित कर दिया था। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. । सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ऐसे ही आदर्श अध्यापक थे जिनका जन्मदिवस हर वर्ष पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
आजकल के अध्यापक :
आज के अध्यापक प्राचीन काल के अध्यापकों से एकदम विपरीत है। आजकल के अध्यापक शिक्षा को व्यवसाय की भाँति समझने लगे हैं और स्वयं को व्यवसायी, जिनका मुख्य लक्ष्य केवल पैसा कमाना रह गया है। प्राचीनकालीन अध्यापक केवल अपने शिष्यों के बारे में सोचते थे, लेकिन आज के अध्यापक पैसों के बारे में सोचते हैं, परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि सभी अध्यापक एक जैसे ही होते हैं, अनेक निःस्वार्थ अध्यापक आज भी इस दुनिया में उपस्थित हैं।
उपसंहार :
आधुनिक समय में हमारे देश को विद्वान, परिश्रमी, सहृदय तथा मृदुभाषी अध्यापकों की बहुत आवश्यकता है। ऐसे अध्यापक ही कले। के भविष्य को ‘खरा सोना’ बना सकते हैं।
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शिक्षक पर निबंध
संसार में शिक्षक का बड़ा महत्व है। भारत में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। ऐसा करके हम अपने शिक्षक को सम्मान देते हैं। शिक्षक दिवस लगभग प्रत्येक देश में अलग-अलग तिथियों में मनाया जाता है। भारत में शिक्षक की बड़ी महिमा है। यहाँ हम शिक्षक को अध्यापक और गुरु कहकर भी संबोधित करते हैं।
विद्वानों का मत है कि मनुष्य का सबसे बड़ा गुरु माँ है। माँ बचपन में अपने बच्चे को जो शिक्षा देती है, वह उसका उम्र भर अनुसरण करता है। छत्रपति शिवाजी को उनकी माँ जीजाबाई ने सदैव स्त्री का सम्मान करने की शिक्षा दी थी जिसका उन्होंने उम्र भर पालन किया था। महाकवि कबीर दास ने गुरु की गरिमा को ईश्वर से भी बड़ा स्थान दिया है-
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूं पायौँ ।
बलिहारी गुरु आपने गोबिंद दियौ बताय।।
अर्थात् ईश्वर कौन है? इसका साक्षात्कार अथवा ज्ञान देने वाले गुरु ही हैं।
गुरु हमें ज्ञान देते हैं। संसार में हमें कैसे रहना है, यह बताते हैं। अपने से बड़ों का आदर करना भी हमें गुरु ही बतलाते हैं। किसी ने सच ही कहा है-“गुरु बिना ज्ञान नहीं होता।” और बिना ज्ञान के मनुष्य पशु समान है। संसार में हर वस्तु को जानने और समझने के लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है।
जब हम विद्यालय जाते हैं, तो सर्वप्रथम गुरु हमें अक्षर ज्ञान कराते हैं। फिर गणित, विज्ञान एवं अन्य विषय पढ़ाते हैं। पढ़ाई के अलावा गुरु हमें आपस में मिल-जुलकर रहने की शिक्षा देते हैं। गुरुजन राजा-महाराजाओं को भी शिक्षा देते हैं। राज दरबार में राजगुरु होते हैं। वे राजा को बताते हैं कि उन्हें क्या करना उचित है और क्या अनुचित है। उनकी ही सलाह-मशविरा और ज्ञान से राजा अपने राज्य का संचालन करते हैं। इस प्रकार गुरु का स्थान सर्वदा सर्वोपरि है।
संस्कृत में भी एक श्लोक है: –
“गुरूर्ब्रह्मा, गुरूर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वरः।।
गुरु साक्षात् परब्रहम्, तस्मै श्री गुरवे नमः ।।”
अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही महेश (शिवजी) हैं। गुरु साक्षात् परब्रह्म अर्थात् ईश्वर हैं। उन गुरु को मेरा नमस्कार है। यहाँ पर गुरु की तुलना ब्रह्मा, विष्णु और महेश अर्थात् ईश्वर से की गई है। सर्वविदित है, राम और कृष्ण को ईश्वर का अवतार माना जाता है। परंतु जब उन्होंने संसार में जन्म लिया, तो ज्ञानोपार्जन करने वे भी गुरु के पास गए। कृष्ण के गुरु संदीपन थे, तो राम के गुरु वशिष्ठ थे।
निष्कर्षत: शिक्षक अथवा गुरु की महिमा अनंत काल से चली आ रही है और आगे भी चिरकाल तक रहेगी।
Essay on Teacher in Hindi
शिक्षक बच्चों को ज्ञानवान और सुसंस्कृत बनाते हैं। बच्चा घर से बाहर निकल । कर विद्यालय में प्रवेश लेता है तो शिक्षक की शरण में जाता है। विद्यालय में शिक्षक ही बच्चों के अभिभावक होते हैं। वे बच्चों को जीवन जीने की शिक्षा देते हैं। बच्चा शिक्षक का अनुगृहीत होता है एवं उन्हें अपना नमन अर्पित करता है। | शिक्षक बच्चों के अंदर ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं एवं उनके अंदर के अज्ञान रूपी | अंधकार को दूर कर देते हैं। बच्चे शिक्षक के समीप श्रद्धाभाव से जाते हैं ताकि वे ज्ञान के समुद्र में गोते लगा सकें। कहा भी गया है कि श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।’ अर्थात् श्रद्धावान् को ज्ञान प्राप्त होता है। यदि विद्यार्थी के अंदर श्रद्धा होती है तो शिक्षक उसे अपना समस्त ज्ञान देते हैं।
शिक्षक का दायित्व बहुत बड़ा है। वह मानव-समाज को सही दिशा दे सकता है। आज के बच्चे कल का भविष्य होते हैं। यदि बच्चे पढ़े-लिखे होंगे तो वे देश का नाम रौशन करेंगे। यदि वे सुसंस्कृत होंगे तो देश सभ्य बनेगा। यदि शिक्षक बच्चों में अच्छे संस्कार डालेंगे तो उससे देश को लाभ होगा। शिक्षा चारों तरफ फैले, कोई भी बच्च अशिक्षित न रहे इसका भार शिक्षकों पर है। शिक्षक चाहें तो ऐसे समाज का निर्माण | कर सकते हैं जिसमें ऊँच-नीच, जातिगत भेदभाव, ईष्र्या, वैमनस्य आदि दुर्गुणों का कोई स्थान न हो। कबीरदास जी कहते हैं।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहारि दे, बाहर मारै चोट॥
अर्थात् गुरु कुम्हार और शिष्य घड़ा है। जिस प्रकार कुम्हार यत्न से घड़े को सुघड़ | बनाता है उसी तरह गुरु भी विद्यार्थियों के दोषों का परिमार्जन करता है। गुरु की कठोरता बाहरी होती है, अंदर से वह दयावान और विद्यार्थी का शुभचिंतक होता है। इसलिए | गुरु की डाँट-फटकार पर ध्यान नहीं देना चाहिए। गुरु विद्यार्थी का हमेशा भला चाहता आज प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा भले ही समाप्त दिखाई दे रही हो, शिक्षक का कर्तव्य अपनी जगह कायम है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए आज भी लगन, परिश्रम, त्याग, नियमबद्धता, विनम्रता जैसे गुणों को धारण करने की आवश्यकता होती है। शिक्षक विद्यार्थियों को ऐसे गुणों से युक्त बनाते हैं। वे उनका मार्गदर्शन करते हैं। वे विद्यार्थियों की उलझन मिटाते हैं। उनमें साहस, धैर्य, सहिष्णुता, ईमानदारी जैसे गुणों का संचार करते हैं।
आज शिक्षा का फलक बड़ा हो गया है। इसमें नैतिक शिक्षा के साथ-साथ विषय ज्ञान और तकनीकी शिक्षा का समावेश हो गया है। अत: आवश्यक है शिक्षक विषय-ज्ञान और तकनीकी ज्ञान में निपुण हों। इसके लिए शिक्षकों को उचित ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए जो योग्य हों। अज्ञानी शिक्षक विद्यार्थियों का भला नहीं कर सकते। जिन्हें स्वयं सही-गलत का पता नहीं, वे विद्यार्थियों को क्या शिक्षा दे सकते हैं।
योग्य शिक्षक विद्यार्थियों का उचित मार्गदर्शन करते हैं। वे नियमित समय पर विद्यालय आते हैं। वे अपनी ऊर्जा केवल शिक्षा देने में व्यय करते हैं। वे कमजोर विद्यार्थियों का विशेष ध्यान रखते हैं। वे सादा जीवन और उच्च विचार के सिद्धांत का अनुसरण करते हैं। वे विषय-वस्तु को इतने सरल एवं प्रभावी ढंग से समझाते हैं। कि बच्चे उनकी बातों को हृदय में धारण कर सकें। अध्ययनशीलता शिक्षकों का एक आवश्यक गुण है। वे निरंतर अध्ययन करते रहते हैं ताकि नई बातें सीखकर विद्यार्थियों को बता सकें। ऐसे योग्य शिक्षकों को समाज में उचित सम्मान मिलता है।
योग्य शिक्षकों को सरकार सम्मानित करती है। शिक्षकों के सम्मान में प्रतिवर्ष 5 सितंबर का दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन विद्यालयों में विशेष समारोह होते हैं जिनमें बच्चों की भागीदारी होती है। राष्ट्रपति योग्य शिक्षकों को पदक और पुरस्कार देते हैं। राष्ट्र उन शिक्षकों को नमन करता है जो अज्ञानांधकार को दूर करने में सहायक होते हैं।
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Essay on Teacher in Hindi
हमारी कक्षा को पांच शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जाता है। वे सभी अच्छे हैं। वे सभी हमें प्यार करते हैं। लेकिन मेरा पसंदीदा शिक्षक श्री राम चंद्र है। वह हमारे अंग्रेजी शिक्षक है।
श्री राम चंद्र एक लंबा मजबूत जवान आदमी है। वह एक भव्य व्यक्तित्व है। उनकी उपस्थिति भाता है। वह हमेशा अपनी पोशाक बहुत साफ और स्वच्छ पहनते है। वह समय पर स्कूल आते है कि हम | कभी छुट्टी नहीं करते है कि वह रोटी नहीं है। उनकी आवाज बहुत | तेज है। वह आम तौर पर एक राजस्थानी पगड़ी पहनते है. हम शायद ही कभी देखने के लिए उसे एक सूट पहनते हैं.
वह सबसे सक्षम शिक्षक है. वह एक शानदार कैरियर है उन्हे अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में छात्रवृत्ति मिल गया। वह एक एम.ए., अध्यापन स्नातक है।
शिक्षण का उनका तरीका बहुत अच्छा है। उन्होंने कई विषयों पर महारत है। वह सबको बहुत रोचक पढ़ते है। जब तक वह अपनी कक्षा में हर छात्र के सबक समझता है। वह कक्षा में प्रत्येक के लिए एक प्रकार का शब्द है। वह लड़कों को प्रोत्साहित करने के लिए अंग्रेजी में बात करते है। वह बहुत कठिन खुद काम करते है। वह लड़कों से काम भी देते है। यही कारण है कि वह पिछले दस वर्षों के लिए अपने विषय में अच्छे परिणाम दिखा रहा है।
हम उसने माथे पर किसी भी तरह की चिंता नहीं देखते। वह बहुत ही नरम स्वभाव के है। वह हमें पढ़ने के लिए नई तकनीक का उपयोग करते है। हम सब उनकी आज्ञा का पालन करते है, और वह हमें प्यार करते है। वह कड़ी मेहनत करते है।
वह कक्षा में एक सख्त अनुशासन बनाए रखते है। वह गरीब लड़कों के लिए सहानुभूति रखते है।
वह सबसे लोकप्रिय स्कूल में शिक्षक है। सभी शिक्षक उनका सम्मान करते है। वह प्रिंसिपल के दाहिने हाथ की है। वह स्कूल की गतिविधियों में हिस्सा लेते है। वह एक अच्छा वक्ता है। हर वर्ष वह साहित्यिक प्रतियोगिताओं के लिए लड़कों को तैयार करते है। हमारे स्कूल के लड़कों के बीच उनके उच्च चरित्र ने उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया है।
Essay on Teacher in Hindi
अध्यापक अर्थात गुरु का स्थान भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही गरिमामय एवं सम्माननीय रहा है। भारतीय परंपरा में गुरु को माता-पिता एवं ईश्वर । से भी अधिक आदर का पात्र माना गया है, क्योंकि मानव की सृष्टि के उपरांत | उसे सामाजिक मानव बनाने का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व गुरु का ही होता है। इस प्रकार अध्यापक एक सभ्य समाज एवं राष्ट्र के निर्माण की आधारशिला के स्थापनाकर्ता होते हैं।
वशिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज, बाल्मीकि, शौनक, अगत्स्य, कपिल, परशुराम, द्रोणाचार्य, संदीपनि तथा पाणिनि जैसे अनेक महान शिक्षकों ने ऐसे अनगिनत व्यक्तित्वों का निर्माण किया, जिन्होंने आगे चलकर विस्तृत साम्राज्यों एवं शांतिपूर्ण समाजों को अस्तित्व प्रदान किया। शेष विश्व में भी सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, रूसो, वाल्टेयर, दांते आदि जैसे अनेक अध्यापक हुए, जिन्होंने विभिन्न देशों में राष्ट्रीय एवं सामाजिक क्रांतियों का बीजारोपण किया।
इन क्रांतियों के फलस्वरूप नवीन समाजों व राष्ट्रों का जन्म हुआ। भारत में बाल्यकाल से ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति तक बालक गुरु के सानिध्य में ही रहता था। गुरुकुल का महत्व पारिवारिक कुल से कहीं अधिक था।
उद्दालक-आरुणि, द्रोणाचार्य-एकलव्य, विश्वामित्र-राम आदि गुरु-शिष्यों के उदाहरणों ने भारत में गुरु परंपरा को आधुनिक समय में भी जीवंत बनाये रखा अध्यापक आज भी राष्ट्र के भविष्य को निर्धारित करने वाले कारकों पर अपना प्रभाव रखते हैं। जहां वे शैक्षिक ज्ञान के द्वारा विद्यार्थी वर्ग को मानसिक रूप से समृद्ध करते हैं वहीं व्यावहारिक ज्ञान द्वारा युवा वर्ग के सामाजिक एवं नैतिक आचरण को राष्ट्रीय हितों के अनुकूल ढालने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
किसी राष्ट्र के निर्माण में युवा वर्ग की ऊर्जा, इच्छाशक्ति, कार्यकुशलता, नैतिक सुदृढ़ता एवं राष्ट्र के प्रति निष्ठा महत्वपूर्ण आधार सामग्री होती है। उक्त आधार सामग्री, को तैयार करने में, किसी बालक के बचपन से लेकर युवावस्था तक, अध्यापक द्वारा अपना अथक परिश्रम जोड़ा जाता है।
अरस्तू के बिना सिकंदर, द्रोणाचार्य के बिना अर्जुन तथा रामकृष्ण परमहंस के बिना विवेकानंद आदि की मल प्रतिभा, संकल्प शक्ति एवं पूर्व कार्यक्षमता का अस्तित्व में आना असंभव था।
आज भी अध्यापक शैक्षिक गतिविधियों के अतिरिक्त सामाजिक साहचर्य, ग्रामीण विकास सम्बंधी जागरूकता तथा सांस्कृतिक बोध के निर्माण में सक्रिय हैं। देश की आजादी के पश्चात् साक्षरता के विस्तार में असंख्यों अध्यापकों का योगदान रहा है। इसी बढ़ती साक्षरता के फलस्वरूप किसी राष्ट्र के विकास में बाधक प्रवृत्तियों-रूढ़िवाद, अंधविश्वास, अश्यपृश्यता, नशाखोरी, नारी उत्पीड़न आदि को काफी हद तक कम किया जा सका है।
किंतु भारत की आजादी के थोड़े समय उपरांत ही अध्यापकों की भूमिका में कछ ऐसे परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होने लगे, जिन्होंने गुरु-शिष्य परंपरा को गंभीर क्षति पहुंचायी है। आज के सामाजिक पर्यावरण में अध्यापकों के सम्मान का दायरा तेजी से घटता जा रहा है तथा राष्ट्र निर्माता के रूप में उनकी भूमिका क्षीण ही नहीं बल्कि नकारात्मक भी होती जा रही है। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन के पृष्ठ में कई कारण विद्यमान हैं।
प्रथम, विद्यार्थी एवं युवा वर्ग में उपभोगवाद, स्वच्छंदतावाद तथा निराशावाद शिकंजा निरंतर कसता जा रहा है, जिसके फलस्वरूप अध्यापकों के प्रति सम्मान * भावना अत्यंत कमजोर हो चुकी है। आज के प्रतिस्पर्धी माहौल में पुराने यापकों की बातों को अतिआदर्शवादी या गैर यथार्थविक एवं प्रगतिरोधक माना जाता है।
आज का युवा वर्ग अध्यापक की बजाय टेलिविजन, इंटरनेट जैसे संचार माध्यमों तथा अपने आदर्श नेताओं, अभिनेताओं एवं काल्पनिक पत्रों से अधिक प्रभावित होता है।
दूसरे, अभिभावकों एवं अध्यापकों के मध्य आपसी संप्रेक्षण नगण्य रह गया है। अभिभावक वर्ग आज युवाओं के चारित्रिक विकास में अध्यापकों की भूमिका को स्वीकारने के लिए उत्साहित नहीं है। अभिभावकों द्वारा शिक्षकों को मात्र एक व्यावसायिक वर्ग के रूप में देखा जा रहा है, जो निश्चित धनराशि के बदले शैक्षिक ज्ञान उपलब्ध कराता है। अभिभावक अपने बच्चों को गुरुकुल के कठिन व श्रम साध्य वातावरण की बजाय ऐसे आधुनिक सुविधाओं वाले विलासितापूर्ण स्कूलों में भेजने को तत्पर हैं, जहां शिक्षकों की भूमिका पांच सितारा होटल के परिचारक के समतुल्य है।
तीसरे, स्वयं अध्यापक वर्ग द्वारा आज अपने नैतिक व सामाजिक उत्तरदायित्व। से पलायन कर लिया गया है। शिक्षा क्षेत्र में बढ़ती व्यावसायिकता, उपभोक्तावाद, आपसी गुटबंदी, नैतिक शिथिलता, स्वार्थपरकता आदि कारकों ने अध्यापकों को नैतिक व सामाजिक पतन के पथ पर अग्रसर कर दिया है। जातीय, धार्मिक, राजनीतिक आधारों पर जन्मे विभेदों एवं पूर्वाग्रहों से अध्यापक वर्ग अछूता नहीं रह गया है।
विशेषतः कस्बायी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश अध्यापक उक्त । विभेदों एवं पूर्वाग्रहों के प्रमुख पोषक तथा वाहक बन चुके हैं। अध्यापक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय है, अतः ऐसे अध्यापकों का राजनीतिक भ्रष्टाचार में शामिल होना स्वाभाविक है। इससे अध्यापकों की सामाजिक छवि को गंभीर नुकसान पहुंचा है।
प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक को राजनीति का अखाड़ा बनाने में अध्यापकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। छात्रों को शैक्षिक ज्ञान एवं नैतिक आचरण का पाठ पढ़ाने की बजाय अध्यापक उन्हें राजनीति, सामाजिक विद्वेष तथा साम्प्रदायिक उन्माद की ओर प्रेरित करने में संलग्न हैं।
राजनीति में रुचि नहीं रखने वाले अध्यापक भी प्राइवेट ट्यूशन व कोचिंग जैसे तरीकों से धनोपार्जन करने में व्यस्त हैं। छात्रों को परीक्षा में नकल कराने, नकली अंक पत्र बनाने तथा अवैध शैक्षिक उपाधियां दिलवाने जैसे अनैतिक कार्यों में भी अनेक अध्यापक संलिप्त हैं। इस प्रकार अध्यापक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र निर्माता की बजाय राष्ट्र विभंजक की भूमिका निभा रहे हैं।
इसके बावजूद आज भी अध्यापकों का एक ऐसा वर्ग मौजूद है, जो अध्यापकों की गरिमा को संजोये रखने हेतु प्रयासरत है। ऐसे विद्यार्थियों एवं अभिभावकों की संख्या भी कम नहीं (विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में) है, जो आज भी व्यक्तित्व एवं राष्ट्र के निर्माण में गुरु की भूमिका के प्रति निष्ठावान हैं।
नकारात्मक राजनीतिक गतिविधियों से अध्यापकों का अलगाव, विद्यार्थियों एवं शिक्षकों की सभी प्रकार के संकीर्ण पूर्वाग्रहों से मुक्ति, रोचक एवं रोजगारपरक शिक्षा पद्धति, युवाओं में आशावादी एवं नैतिक विचारों के प्रति रुझान पैदा करने वाला वातावरण, अध्यापकों को आर्थिक आत्मनिर्भरता की गारंटी, शैक्षिक केंद्रों में राजनीतिज्ञों एवं अफसरों के प्रभाव क्षेत्र का उन्मूलन आदि ऐसे निराकरणीय उपाय हैं, जिनका क्रियान्वयन विभिन्न स्तरों पर किया जाना अपेक्षित है।
सामाजिक, नैतिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर किये जाने वाले बहुमुखी प्रयासों के पश्चात् ही अध्यापकों की राष्ट्र निर्माता की भूमिका को पुनः सशक्त किया जा सकेगा तथा आधुनिक समयानुकूल नवीन राष्ट्रीय व सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने हेतु उचित वातावरण की सृष्टि की जा सकेगी।
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शिक्षक पर निबंध
मानव-समाज में शिक्षा प्रदान करना और शिक्षा ग्रहण करना, दोनों ही महत्त्वपूर्ण कार्य माने जाते रहे हैं। ज्ञान के अभाव में मनुष्य को पशु समान माना जाता है और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता। ज्ञान अथवा शिक्षा प्रदान करने और ग्रहण करने के लिए ही गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना है।
गुरु-शिष्य अथवा शिक्षक-छात्र का सम्बन्ध इसीलिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इस सम्बंध के उपरान्त ही पशु समान मनुष्य के ज्ञानी बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है। प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए छात्र गुरुकुल अथवा आश्रमों में जाया करते थे। उस काल में गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करता था। शिक्षा प्रदान करने वाले गुरु को भगवान तुल्य माना जाता था।
अपने शिष्यों के प्रति गुरु का व्यवहार भी पिता तुल्य हुआ करता था। गुरु अपनी सन्तान की भाँति शिष्यों के भविष्य के प्रति चिंतित रहते थे और उन्हें शिक्षित करने के लिए यथासम्भव प्रयत्न किया करते थे। एक पिता के समान गुरु गलती करने पर शिष्यों को सख्त सजा भी दिया करते थे, ताकि अपनी गलती का अनुभव करके शिष्य उसे दोहराने का प्रयत्न न कर सकें। उस काल में शिष्य भी गुरु द्वारा दी गयी सजा को सहर्ष स्वीकार कर लिया करते थे। उन्हें अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास होता था। परन्तु गुरुकुल परम्परा समाप्त होने के साथ ही गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में गिरावट आने लगी।
आश्रमों के स्थान पर विद्यालय, महाविद्यालय बनने लगे। छात्रों के लिए शिक्षा ग्रहण करना पूर्ववत् जीवन की आवश्यकता बना रहा। परन्तु शिक्षकों के लिए विद्यालय में जाना मात्र नौकरी करना रह गया। अब शिक्षक-छात्र के सम्बन्ध व्यावसायिक हो गए। शिक्षक मानने लगे कि छात्रों को पढ़ाना उनकी विवशता है, क्योंकि इसी कार्य के लिए उन्हें वेतन मिलता है। शिक्षा प्रदान करना वास्तव में उनकी रोजी-रोटी है। दूसरी ओर छात्रों के मन-मस्तिष्क में भी यह बात बैठ गयी कि शिक्षा प्रदान करके शिक्षक उन पर कोई उपकार नहीं करते।
शिक्षा ग्रहण करने के लिए उन्हें शुल्क देना पड़ता है और उसी शुल्क से शिक्षक वेतन प्राप्त करते हैं। इस नयी विचारधारा का शिक्षक-छात्र के सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और शिक्षक-छात्र के सम्बन्ध की गरिमा बिखरने लगी। शिक्षकों का छात्रों के प्रति पिता तुल्य व्यवहार नहीं रहा और छात्रों के हृदय में शिक्षक के प्रति आदर का भाव घटने लगा। ऐसी स्थिति में छात्रों की गलती पर शिक्षकों के सख्त व्यवहार का भी विरोध किया जाने लगा, शिक्षकों द्वारा छात्रों को सजा देना तो स्पप्न की बात रह गयी।
हमारे देश में स्वतंत्रता से पूर्व शिक्षक-छात्र के सम्बन्धों में आदर एवं प्रेम विद्यमान था। तब विद्यालयों एवं महाविद्यालयों का वातावरण दूषित नहीं हुआ था। परन्तु वर्तमान युग में शिक्षा का मंदिर’ माने जाने वाले विद्यालय, महाविद्यालय गुंडागर्दी के अड्डे बनकर रह गए हैं।
आज शिक्षक-छात्र के सम्बन्धों का पूर्णतया पतन हो चुका है। शिक्षकों को छात्रों के भविष्य की कोई चिन्ता नहीं है और छात्र शिक्षकों का अपमान करने में जरा भी संकोच नहीं करते। प्राचीन काल में शिष्यों के मन में गुरु का भय होता था, परन्तु आज का शिक्षक छात्रों से डरता है। शिक्षक-छात्र के सम्बन्धों में हुए पतन का दुष्परिणाम भी नयी पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। आज के छात्र साक्षर अवश्य बनते हैं, उनके पास शिक्षा के प्रमाण पत्र भी होते हैं।
परन्तु वास्तव में योग्यता बहुत कम छात्रों में पाई जाती है। इसके अतिरिक्त नयी पीढ़ी में नैतिक शिक्षा और संस्कारों का भी अभाव देखने को मिल रहा है।
वास्तव में शिक्षा एवं योग्यता कठिन परिश्रम से ही प्राप्त की जा सकती है। यह भी सत्य है कि एक योग्य शिक्षक से ही कठिन परिश्रम की प्रेरणा मिल सकती है। इसके लिए शिक्षक-छात्र के सम्बन्धों में प्रेम एवं आदर का भाव होना आवश्यक है।
नयी पीढ़ी को शिक्षित, सभ्य बनाने के लिए शिक्षक-छात्र के सम्बन्धों को गरिमा प्रदान करने की विशेष आवश्यकता है।
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