हेलो दोस्तों आज फिर में आपके लिए लाया हु Essay on Indian Women in Hindi पर पुरा आर्टिकल। भारत देश दुनिया का सबसे अलग है जो अपनी संस्कृति के पूरी दुनिया जाता है। आज के essay में आपको Indian Women के बारे में बहुत बातें पता चलेंगे तो अगर आप अपने बच्चे के लिए Essay on Indian Women in Hindi में ढूंढ रहे है तो हम आपके लिए Indian Women यानि भारतीय नारी पर लाये है जो आपको बहुत अच्छा लगेगा। आईये पढ़ते है Essay on Indian Women in Hindi or निरक्षरता पर निबंध
Essay on Indian Women in Hindi
किसी भी राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति तथा उन्नति का मूल्यांकन वहाँ की नारी की स्थिति को देखकर लगाया जा सकता है। पुरुष वर्ग तो हर राष्ट्र में ही सम्मान पाता है लेकिन स्त्री को वह सम्मान प्राप्त नहीं है, जो पुरुष को है। जो राष्ट्र स्त्री को केवल खाना बनाने, पति, पिता की सेवा करने, बच्चे पैदा करने का साधनमात्र मानते हैं वे दुर्भाग्यवश उन्नति की दौड़ में बहुत पीछे रह जाते हैं।
प्राचीन युग में स्त्रियाँ पुरुषों के साथ प्रत्येक सामाजिक तथा धार्मिक कार्य में समान रूप से हिस्सा लेने का अधिकार रखती थी। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान स्त्री के बिना अधूरा माना जाता था। वह आखेट, युद्ध, शास्त्रार्थ तथा राजकार्य में भी पुरुष की सहगामिनी होती थी। प्राचीनकाल में स्त्री को उचित सम्मान प्राप्त था। द्वापर युग आते-आते स्त्री के अधिकारों का हनन होने लगा।
उसे अनेक बंधनों में बाँध दिया गया। मध्यकाल में तो नारी केवल गुलाम तथा भोग्या बनकर पुरुष की वासना शान्त करने वाली वस्तु बनकर रह गई थी। लेकिन आधुनिक काल में स्त्री का विद्रोह रूप सामने आया है। उसने स्वयं को अनेक बंधनों से स्वयं मुक्त किया है। अब वह पद-प्रथा, बाल-विवाह, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों के विरा से लड़ रही हैं। शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियाँ पुरुषों के कंधे से कंधे मिला आगे बढ़ रही हैं।
अब तो नारी घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी कुशलतापूर्व जा रही है। आज 21वीं सदी में नारी संघर्षों में शक्ति रूप बनकर 3 को सहयोग दे रही है और उसकी प्रेरणा शक्ति बनी हुई है।
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Essay on Indian Women in Hindi
छायावादी कवि पन्त ने तो नारी को देवी माँ सहचरि, सखी प्राण कहकर श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं और उन्होंने अपने शब्दों में लिखा है-
यत्र नार्याऽस्तु पूजयन्ते
समन्ते तत्र देवता।
जैसे आदर्श उद्घोष से नारी का सम्मान किया है। नारी सृष्टि का प्रमुख उद्गम स्रोत है। नारी के अभाव में समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। सृष्टि सृजन से ही नारी का अस्तित्व रहा है। देव से लेकर मानव तक नारी ही जन्मदात्री रही है। बिना नारी के पुरुष अधूरा है। नारी के अभाव में घर-घर नहीं होता। चारदीवारी से घिरा घर घर नहीं कहा जाता। नारी का प्रमुख आधार है।
विश्व में नारी का महत्व क्या रहा है यह तो एक विचारणीय विषय है। इस पर एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। मानव सृष्टि में पुरुष और नारी के रूप में आदि शक्ति ने दो अपूर्ण शरीरों का सृजन किया है। एक के बिना दूसरा अपंग है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं अथवा समाज रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं। पुरुष को सदैव से शक्तिशाली माना जाता रहा है और स्त्री को अबला नारी। यही कारण है कि नारी को बेचारी अबला आदि कहकर पीछे छोड़ दिया जाता है।
नारी को तो अर्धांगिनी कहा जाता है, किन्तु पुरुष रूपी समाज का ठेकेदार अपने को अद्भुग कहने से कतराता है। किसी भी ग्रन्थ में पुरुष को अद्भुग कहकर परिचय नहीं कराया गया है जो कि नारी के महत्व को कम करता है। एक प्रश्न विचारणीय है”यदि नारी अद्धगिनी है तो उसका अद्भुग कहाँ ? उत्तर में पुरुष ही समझ में आता है।
जो महत्व नारी का समाज में होना चाहिये वह महत्व पुरुष समाज में नारी को नहीं मिल पाता।
आँचल में दूध आँखों में पानी,
ओ अबला नारी तेरी यही कहानी।।
आज के युग में नारी वर्ग को कोई सम्मान नहीं दिया गया है। आज नारी के साथ द्रोपदी की तरह व्यवहार हो रहा है। नारी को इस संसार रूपी जगत में कौरवों रूपी दानवों ने कुचल दिया है। उसका घोर अपमान किया है और उसको नारी का महत्व नहीं दिया। नारी द्वापर काल से ही पीड़ित चली आ रही है। मत्य और नवीन युग में आकर स्थिति और बिगड़ गई। समाज में उसकी पीड़ा का कोई उपचार नहीं।
नारी ने पुरुष की तुलना में जो अन्तर पाया, उसी को अपनी दयनीय स्थिति का कारण मान लिया। उसके मन में भावुकता अधिक समय तक न टिक सकी।
उसने अपने को मार्ध मानने के अतिरिक्त शेष हुतलिता मानने का निश्चय कर लिया। उसने अपने शील का परित्याग नहीं किया, किन्तु बाह्य जगत से कठोर संघर्ष करने का निश्चय कर लिया। नारी ने कभी शील का परित्याग नहीं किया, किन्तु सर्वत्र कठोर संघर्ष करने का निश्चय कर प्राचीन काल से ही आन्दोलन करती चली आ रही है।
रवना, लीलावती, अमयार तथा गार्गी की कथायें किसी से छिपी नहीं हैं। स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सिद्ध कर दिया कि आज भी नारी सब प्रकार से पूर्ण शक्तिशाली हे, किसी पुरुष से कम नहीं। कुछ साहित्यकारों ने नारी को महत्व प्रदान करने का प्रयास किया, किन्तु मनुष्य ने उसे मात्र मनोरंजन की वस्तु मान कर उसके साथ अन्याय किया। पुरुष ने साहित्यकारों को महत्व प्रदान नहीं किया। वेदों और पुराणों में नारी को महत्व प्रदान किया गया है।
वेद-पुराणों में लिखा है कि नारी (पत्नी) के बिना कोई भी यज्ञ एवं सकार्य पूर्ण नहीं हो सकता। मानसा प्रेमी यह भली-भाँति जानते हैं कि भगवान राम को भी सीता का परित्याग करने पर अश्वमेघ यज्ञ में सीता की स्वर्णमयी प्रतिभा बनानी पड़ी थी। कितनी बड़ी विडम्बना है, साथ ही धोखा भी कि जिस पुरुष का सृजन सदैव उसे गिराने का ही उपक्रम करता रहता है। उसे इतने से भी संतोष नहीं होता तो अपनी शक्ति का अनुचित प्रयोग करता है।
उससे अनुचित कृत्य कराता है। यहाँ तक कि उसके प्राण लेने से भी नहीं चूकता। इस प्रकार के अत्याचारों को रोकता होगा। स्त्री तो साक्षात ममता की मूर्ति है। वह असहाय नहीं है। उसका चण्डी रूप उसकी रक्षा के लिये पर्याप्त है।
स्वातन्त्रयोत्तर नारी की स्थिति-स्वातन्त्रयोत्तर भारत में निश्चित रूप से नारी की स्थिति में आशातीत बदलाव हुआ है। नगरों में विशेष यप से वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक दिखाई दे रही हैं। आज उनका कार्य क्षेत्र भी घर की संकुचित चहारदीवारी से बाहर जा पहुँचा हैं। वे दफ्तरों, होटलों, अदालतों, शिक्षा, संस्थाओं एवं संसद में भी एक अच्छी संख्या में दिखाई पड़ रही हैं। महिला अधिकारों के प्रति समाज भी सचेत हो रहा है।
पहले जहाँ उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती थी, वहीं आज जागरूक मीडिया से उन्हें सहायता मिल रही है। महिला मुक्ति आन्दोलनों तक वे सीमित नहीं रह गई हैं अपितु उनमें हर क्षेत्र में जागरूकता आई है। उनका कार्यक्षेत्र बदला है और अब परिवार में उनकी बात का भी वजन बढ़ रहा है।
वे आर्थिक रूप से भी स्वतन्त्र हो रही है, उनका भी अपना व्यक्तित्व है, अपनी पहचान है और कहीं-कहीं तो वे पुरुष को पीछे छोड़कर परिवार की कर्ता बन रही हैं।
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संसार एक रंगमंच है, जिस पर अभिनय करने वाले स्त्री एवं पुरुष दोनों हैं। देश के निर्माण में पुरुषों के साथ स्त्रियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीय समाज में नारियों की पूजा विभिन्न रूपों में होती रही है। प्राचीन भारत के इतिहास के पृष्ठ भारतीय महिलाओं की गौरवगाथा से भरे हुए हैं। मनुस्मृति में कहा गया है ।
यत्र नार्यस्तु पूज्यंत रमते तत्र देवताः।
अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा की जाती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। अतीतकाल में नारियों को पुरुष के समान अधिकार प्राप्त थे। परिवार में उनका स्थान प्रतिष्ठापूर्ण था। गृहस्थी का कोई भी कार्य उनकी सम्मति के बिना नहीं हो सकता था। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब रामचंद्रजी ने अश्वमय यज्ञ किया तो उन्होंने सीता के वनवास के कारण उनकी स्वर्णप्रतिमा रखकर यज्ञ की पूर्ति की। आवश्यकता होने पर स्त्रियाँ पुरुष को रणक्षेत्र में भेजती थीं तथा साथ भी जाती थीं।
प्राचीनकाल में स्त्री- देवासुर संग्राम की उस घटना को कौन भूल सकता है, जिसमें कैकेयी ने अपने अद्वितीय कौशल से महाराज दशरथ का भी चकित कर दिया था। अपनी योग्यता, विद्वत्ता तथा विवेक-बुद्धि के बल पर द्रौपदी अपने पतियों को वनवास काल और युद्धकाल में सत्परामर्श से प्रेरित करती थी। प्राचीनकाल में नारियों को अपनी योग्यता के अनुसार पति चुनने का अधिकार था। कैकेयी, शकुंतला, सीता, अनुसया, दमयंती, सावित्री आदि स्त्रियाँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
स्थिति में परिवर्तन- समय के परिवर्तन के साथ-साथ स्त्रियों में भी परिवर्तन हो गया। प्रेम, बलिदान तथा सर्वस्व-समर्पण ही स्त्रियों के लिए विष बन गया। समाज की घृणित विचारधारा ने उनका क्षेत्र केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित कर दिया। आदर्शवादी एवं समाज-सुधारक गोस्वामी तुलसीदास ने नारी की इस स्थिति का चित्रण इन शब्दों में किया है-
कत बिधि सृजी नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। मुस्लिम काल में परदा-प्रथा आरंभ हुई। स्त्री को शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर दिया गया। उसे पूँघट की ओट में घर की चारदीवारियों में बंद कर दिया गया, तभी से नारी विवशता की बेड़ियों में जकड़ी स्वाधीनता की बाट जोह रही थी।
समाज के बाहुपाश में बँधी नारी- नारी ने प्रेम के वशीभूत होकर स्वयं को पुरुष के चरणों में समर्पित कर दिया, किंतु निर्दयी पुरुष ने उसे बंधनों में जकड़ लिया। वही नारी, जिसने अपने पति की पराजय से क्षुब्ध होकर महान् विद्वानों से शास्त्रार्थ किया था, घर की सीमित परिधि में बंद हो गई। वह अविद्या तथा अज्ञान के गहन गर्त में डुबकी लगाने लगी और सामाजिक प्रताड़नाओं को मूक पशु के समान सहन करती रही।
छोटी अवस्था में उसका बेमेल विवाह कर दिया जाता तथा कभी-कभी भाग्य की विडंबना के कारण बेचारी विधवा होकर जीवन-पर्यंत आँसू बहाती रहती।
स्त्रियों का जीवन पुरुषों की दया पर निर्भर रहता। परदा-प्रथा, अनमेल विवाह, उत्तराधिकार से वंचित रखा जाना तथा आर्थिक, सामाजिक कुरीतियों ने परधीन भारत में नारियों को इतना दीन-हीन बना दिया कि वे अपने अस्तित्व को ही भूल गईं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने नारी की इसी दीन-हीन दशा का वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में किया है-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।
भारतीय नारी और समाज-सुधारक- धीरे-धीरे भारतीय विचारकों एवं नेताओं का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ। राजा राममोहन राय ने सतीप्रथा का अंत कराने का प्रयत्न किया। इस प्रथा के अनुसार मन में न चाहने पर भी । पति की मृत्यु होने पर उसके साथ पत्नी को सती होने के लिए विवश होना पड़ता था। महर्षि दयानंद सरस्वती ने पुरुषों की भाँति महिलाओं को भी समान अधिकार दिए जाने पर बल दिया।
गांधीजी सहित अन्य अनेक नेताओं ने महिला-उत्थान के लिए जीवन-पर्यंत कार्य किया। देश की स्वतंत्रता के साथ-साथ नारी-वर्ग में भी चेतना का विकास हुआ और आज वह घर की गुड़िया न होकर पुरुषों के समान कार्य-क्षेत्र में पदार्पण कर रही है।
भारतीय संविधान में भी यही घोषणा की गई ‘राज्य धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक में विभेद नहीं करेगा।’
शारदा एक्ट’ एवं ‘उत्तराधिकार नियम’ द्वारा स्त्रियों की दशा में सुधार लाने की चेष्टा की गई। आज उन्हें पुरुषों के समान आर्थिक स्वतंत्रता दी जा । रही है। पिता की संपत्ति में पुत्रों की भाँति पुत्रियों के हिस्से की भी व्यवस्था की गई है।
भारतीय नारी : बलिदान की प्रतिमा- भारतीय नारी जीवन की । कटुता और विषमताओं का विष पीकर भी कर्तव्य और त्याग का जाग्रत संदेश देती रही। रानी लक्ष्मीबाई के रूप में उसने अपना बलिदान देकर अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए अँग्रेजों से युद्ध किया। गांधी जी को चरित्र-निर्माण की भूल प्रेरणा देनेवाली उनकी माता पुतलीबाई थीं।
श्रीमती सरोजनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी, राजकुमारी अमृत कौर, डाक्टर सुशीला नय्यर आदि के रूप में हमें आज के प्रगतिशील नारी-समाज के दर्शन होते हैं। इन नारियों ने स्वयं राष्ट्र-निर्माण एवं जन-जागरण में भाग लेकर नारी-जाति का पथ-प्रदर्शन किया
स्वतंत्र भारत में महिलाओं की प्रगति के लिए हमारी सरकार पर्याप्त ध्यान दे रही है। आज की स्त्रियाँ घर के सीमित कार्य-क्षेत्र को छोड़कर समाज-सेवा की ओर बढ़ रही हैं। उनके हृदय में सामाजिक चेतना उत्पन्न हो रही है। आज भारतीय नारी के सामूहिक जागरण के मार्ग में अनेक अवरोध आ रहे हैं। इन अवरोधों को नष्ट करके ही भारतीय नारी अपना उत्थान कर सकती है।
भारतीय सभ्यता का मूलमंत्र ‘सादा जीवन उच्च विचार’ था, परंतु आज की नारियाँ सादा जीवन से बहुत दूर हैं। आज के संक्रांतिकाल में जब देश के हजारों व्यक्तियों के पास न खाने को अन्न है और न पहनने के लिए कपड़ा, ऐसे समय में वे राष्ट्र की अमूल्य संपत्ति अपने श्रृंगार-साधन में नष्ट कर देती हैं। पुरुषों को मोहित करने के लिए अपने-आपको सजाने-सँवारने की पुरातन प्रवृत्ति को वे आज भी नहीं छोड़ सकीं।
नारी-समस्याओं की लेखिका श्रीमती प्रेमकुमारी ‘दिवाकर’ का कथन है-‘आधुनिक नारी ने, नि:संदेह बहुत कुछ प्राप्त किया है, पर सब कुछ पाकर भी उसके भीतर का परंपरा से चला आया हुआ कुसंस्कार नहीं बदल रहा है, वह चाहती है कि वह रंगीनियों से सज जाए और पुरुष उसे रंगीन खिलौना समझकर उससे खेले। वह अभी भी अपने-आपको रंग-बिरंगी तितली बनाए रखना चाहती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि जब तक उसकी यह आंतरिक दुर्बलता दूर नहीं होगी, उसके मानस का नव-संस्कार न होगा। जब तक उसका भीतरी व्यक्तित्व न बदलेगा, तब तक नारीत्व की पराधीनता व दासता के विष-वृक्ष की जड़ पर कुठाराघात न हो सकेगा।’ इसके अतिरिक्त स्त्रियों को जीवन-पर्यंत दूसरों पर भार बना रहना पड़ता है।
अशिक्षा, प्रसूतिका-गृह की समस्या, आभूषणप्रियता, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह आदि अनेक ऐसी विकट समस्याएँ हैं, जिनके द्वारा नारी-प्रगति में अवरोध उत्पन्न हो रहा है।
उपर्युक्त समस्याओं का निराकरण करके स्त्रियों की स्थिति में सुधार का प्रयास किया जा रहा है। आज जीवन के समस्त क्षेत्रों में स्त्रियों ने पदार्पण कर लिया है; अतः स्त्रियाँ देश का भाग्य बदलने में सहायक सिद्ध हो रही हैं। आज नारी नवचेतना एवं जागृति से ओतप्रोत है। वह अपने अधिकार एवं कर्तव्यों का पालन पूर्णरूप से कर सकने में समर्थ है।
आज वह समय आ गया है, जिसकी हमें बहुत समय से प्रतीक्षा थी।
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