हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Yudh Aur Shanti Essay in Hindi पर पुरा आर्टिकल। युद्ध केवल नाश तथा नष्ट कर सकता है, किसी की भलाई कभी भी नहीं कर सकता।इसलिए हम आपके लिए लाये है आइये पढ़ते है युद्ध और शांति पर निबंध
युद्ध और शांति पर निबंध
प्रस्तावना :
प्रत्येक मनुष्य स्वभाव, कर्म एवं गुणों से शान्त प्रकृति वाला होता है, परन्तु उसके शान्त हृदय के भीतर कहीं न कहीं एक अशान्त प्राणी भी छिपा रहता है, जो थोड़ा सा भी भड़काने पर हिंसक रूप धारण कर लेता है। वैसे तो हर मनुष्य हृदय से यही चाहता है कि वह हमेशा शान्त व्यवहार करे लेकिन परिस्थितियां उसे हिंसक बना देती है। मनुष्य की यह प्रवृत्ति ही अनेक युद्धों को जन्म देती है।
युद्ध का अभिप्राय :
जब लड़ाई-झगड़े घर के सदस्यों के बीच होते हैं तो वे घरेलू झगड़े कहलाते हैं तथा अधिक हानिकारक नहीं होते क्योंकि घर का ही कोई समझदार व्यक्ति दोनों पक्षों में सुलह करवा देता है और मामला वही शान्त हो जाता है। जब युद्ध कुछ व्यक्तियों के मध्य होते हैं | तो वे जातीय या साम्प्रदायिक झगड़े कहलाते हैं, जो कभी-कभी तो आसानी से काबू में आ जाते हैं, लेकिन कभी-कभी विकराल रूप धारण कर लेते हैं। लेकिन जब यही युद्ध दो देशों अथवा अनेक देशों के बीच हो जाते हैं, तो वे ‘युद्ध’ अथवा ‘महायुद्ध’ कहलाते हैं।
युद्ध के परिणाम :
युद्ध के परिणाम निःसन्देह बहुत जानलेवा होते हैं, जिनसे हर तरफ हाहाकार मच जाता है। हजारों वर्षों के अथक प्रयासों व साधनों से ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला आदि का किया गया विकास कार्य युद्ध के एक झटके से ही तहस-नहस हो जाता है। बसे-बसाए घर तो क्या, गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं, उनका नामोनिशान भी नहीं दिखता। युद्ध के इन्हीं विकराल कारणों एवं दुष्परिणामों के कारण ही एक सभ्य मनुष्य युद्ध से दूर ही रहना चाहता है, लेकिन कुछ पशु-प्रवृत्ति के लोग युद्ध की आग को भड़काकर ही शान्त होते हैं।
प्राचीन काल से ही युद्ध अपना भयंकर रूप दिखाते आए हैं तथा महापुरुषों ने इन युद्धों को रोकने की भरसक कोशिश की है। तभी तो महाभारत के युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण स्वयं शान्तिदूत बनकर कौरवों की सभा में गए थे। लेकिन कभी कभी शान्ति चाहते हुए भी राष्ट्रों को अपनी स्वतन्त्रता तथा स्वाभिमान की रक्षा हेतु मजबूरीवश युद्ध लड़ने पड़ते हैं। इसका एक उदाहरण द्वापर युग में पाण्डवों द्वारा, त्रेता युग में श्रीराम द्वारा तथा आज के आधुनिक भारतवर्ष में अंग्रेजों तथा आतंकवादियों के खिलाफ लड़े गए युद्ध हैं।
शान्ति की स्थापना :
खुशहाल तथा शान्त जीवन जीने के लिए प्रगति तथा विकास के पथ पर आगे बढ़ने के लिए तथा देश की उन्नति के लिए शान्त वातावरण अति आवश्यक है। देश की संस्कृति, कला, विज्ञान, साहित्य तभी विकसित हो पाते है, जब चहुमुंखी शान्ति का वातावरण है। अशान्त मन से तो कोई भी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न होना असम्भव ही है।
खेल, मनोरंजन, मस्ती, हंगामा भी तो सुखी तथा शान्तचित्त में ही पसन्द आते हैं। इसके अतिरिक्त देश में व्यापार की उन्नति व आर्थिक विकास भी शान्त वातावरण में ही सम्भव है अर्थात् सर्वांगीण विकास के लिए शान्ति एवं सौहार्द ही आवश्यक है।
शान्ति स्थापना :
इस बात से तो कोई भी इंकान नहीं कर सकता कि युद्ध किसी के भी हित में नहीं होता। युद्ध केवल नाश तथा नष्ट कर सकता है, किसी की भलाई कभी भी नहीं कर सकता। इसीलिए शान्ति स्थापना के लिए अनेक प्रयास किए गए। सर्वप्रथम, प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने पर लीग नेशन्स’ नामक संस्था गठित की गई। लेकिन कुछ समय की शान्ति के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ। इसकी समाप्ति पर संयुक्त राष्ट्र संघ’ नामक संस्था गठित की गई।
उपसंहार :
मनुष्य की प्रवृत्ति ही ऐसी है वह बहुत जल्दी भूल जाता है तभी तो आज संसार तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी में है। आजकल तो खुले आम मानव दूसरों के लिए टाइमबमों का निर्माण कर रहा है। आज अनेक देश जैसे पाकिस्तान अमेरिका, ईरान इत्यादि लड़ने के लिए तैयार है और अपने आतंकवादी भेज रहे हैं। परन्तु यह बात सदा स्मरण रहनी चाहिए कि युद्ध में हानि तो विजेता तथा पराजित पक्ष दोनों की ही होती है।
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Yudh Aur Shanti Essay in Hindi
मनुष्य को स्वभाव, कर्म व गुणों के आधार पर शान्त प्रकृति वाला प्राणी माना जाता है। यद्यपि प्रत्येक मनुष्य के हृदय के भीतरी भाग में कहीं-न-कहीं एक हिंसक प्राणी भी छिपा रहता है। परन्तु मनुष्य का भरसक प्रयत्न रहता है कि वह भीतर का हिंसक प्राणी किसी प्रकार भी जागे नहीं। यदि किसी कारणवश वह जाग पड़ता है तो तरह-तरह की संघर्षात्मक क्रिया-प्रक्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं का जन्म होने लगता है, तब उनके घर्षण तथा प्रत्याघर्षण से युद्धों की ज्वाला धधक उठती है।
इस प्रकार के युद्ध यदि व्यक्ति या व्यक्तियों के मध्य होते हैं तो वे गुटीय या साम्प्रदायिक झगड़े कहलाते हैं। परन्तु जब इस प्रकार के युद्ध दो देशों के मध्य हो जाते हैं तो वे कहलाते हैं – युद्ध।
सामान्य जीवन जीने के लिए तथा जीवन में स्वाभाविक गति से प्रगति एवं विकास करने के लिए शान्ति का बना रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। देश में संस्कृति, साहित्य तथा अन्य उपयोगी कलाएँ तभी विकास पा सकती हैं जब चारों ओर शान्त वातावरण हो। देश में व्यापार की उन्नति व आर्थिक विकास भी शान्त वातावरण में ही संभव हो पाता है। सहस्त्र वर्षों के अथक प्रयत्न व साधन से ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला आदि का किया गया विकास युद्ध के एक ही झटके से मटिया-मेट हो जाता है।
युद्ध के इस विकराल रूप को देखकर तथा इसके परिणामों से परिचित होने के कारण मनुष्य सदैव से इसका विरोध करता रहा है। युद्ध न होने देने के लिए मानव ने सदैव से प्रयत्न किए हैं। महाभारत का युद्ध होने से पहले श्रीकृष्ण भगवान् स्वयं शान्ति दूत बनकर कौरव सभा में गए थे।
आधुनिक युग में भी प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद लीग आफ नेशन्स’ जैसी संस्था का गठन किया गया। परन्तु मानव की युद्ध-पिपासा भला शान्त हुई क्या? अर्थात् फिर दूसरा विश्व युद्ध हुआ। इसके बाद शान्ति की स्थापना के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ (UN.O.) जैसी संस्था का गठन हुआ। परन्तु फिर भी युद्ध कभी रोके नहीं जा सके।
एक सत्य यह भी है कि कई बार शान्ति चाहते हुए भी राष्ट्रों को अपनी सार्वभौमिकता, स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए युद्ध लड़ने पड़ते हैं। जैसे द्वापर युग में पाण्डवों को, त्रेता युग में श्रीराम को तथा आज के युग में भारत को लड़ने पड़े हैं। परन्तु यह तो निश्चित ही है कि किसी भी स्थिति में युद्ध अच्छी बात नहीं।
इसके दुष्परिणाम पराजित व विजेता दोनों को भुगतने पड़ते हैं। अतः मानव का प्रयत्न सदैव बना रहना चाहिए कि युद्ध न हों तथा शान्ति बनी रहे।
Essay on War and Peace in Hindi
मानव और शक्ति-संचय-वर्तमान में मनुष्य ने देवताओं के समान शक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न प्रारंभ किया है। उसने देवता कहलाने वाले चाँद पर भी विजय प्राप्त कर ली है, किंतु वह प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है। आज मनुष्य अधिक-से-अधिक शक्तिशाली एवं सुदृढ़ बनने के लिए प्रयत्नशील है, जिससे वह समस्त विश्व पर शासन कर सके। शक्ति एवं धन के लिए मानव आज इतना अधिक व्याकुल है कि वह अपने कर्तव्यों तक को भूल गया है। सर्वत्र भय और घृणा का वातावरण व्याप्त है, जिससे युद्ध को बल मिलता है।
मानव और स्वार्थ-मानव स्वार्थ-प्रवृत्ति से युक्त है। वह कब चाहता है कि उसका पड़ोसी देश फूले-फले? यही ईर्ष्या की आग एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए अपनी जीभ लपलपाती रहती है। एक राष्ट्र अपने सिद्धांत और विचारधारा को दूसरे राष्ट्र पर थोपना चाहता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से अपने सभी उचित-अनुचित कार्यों में समर्थन चाहता है। आज संसार में अस्त्र-शस्त्र के निर्माण तथा उन्हें एकत्रित करने की होड़ लगी हुई है, आखिर क्यों? केवल अपनी दानवी आसुरी पिपासा को युद्ध के रक्त से शांत करने के लिए। धन की प्राप्ति तथा क्षेत्र विस्तार की कामना भी युद्ध के मूल में है।
अनेक धनलिप्सुओं ने इस पावन धरती को पदाक्रांत कर रक्तरंजित किया है। आरंभ में अनेक मुस्लिम आक्रांता भारत के धन की लूटमार के लिए ही यहाँ आए। सिकंदर के हृदय में विश्व-विजय की लालसा अत्यंत बलवती थी। इससे प्रेरित होकर अनेक देशों को युद्धों की लपटों से झुलसाता हुआ वह भारत तक आ पहुँचा था।
प्राचीन और आधुनिक युद्ध में अंतर- प्राचीनकाल में भी शक्तिशाली व्यक्तियों ने अशक्तों पर आक्रमण एवं अत्याचार किए हैं। परंतु उन युद्धों एवं आधुनिक युद्धों में आकाश-पाताल का अंतर है। आज युद्ध-साधनों की व्यापकता इतनी अधिक बढ़ गई कि कब क्या हो जाए, इस विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। आज युद्ध केवल पृथ्वी तक ही सीमित नहीं, अपितु आकाश भी रणक्षेत्र बना हुआ है। जल, थल और नभ तीनों प्रकार के युद्धकला के नवीन आविष्कारों ने युद्ध के प्रकार में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है।
युद्ध मानव-जाति के मस्तक पर कलंक है, ईश्वरीय सृष्टि के प्रति पाप है। प्राचीनकाल में मुख्यतः युद्ध अपनी क्षमता, साहस तथा चरित्र के उत्थान के लिए किए जाते थे। आदर एवं यश का एकमात्र साधन युद्ध ही था। महान् ‘शूरवीर ईश्वर की तरह पूजे जाते थे। भारतवर्ष में यह विश्वास किया जाता था कि युद्ध-क्षेत्र में जो वीरगति को प्राप्त करते हैं, वे सीधे स्वर्ग को जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश दिया है-
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: 2/371
युद्ध की विनाश-लीला-लेकिन युद्ध का कल्पनातीत नरसंहार कितनी माताओं की गोद के इकलौते लाड़लों को, कितनी प्रेयसियों के जीवनाधार अमर स्वरों को, कितनी सधवाओं के सौभाग्य-बिंदुओं को, कितनी बहिनों की राखियां को अपने क्रूर हाथों से क्षणभर में ही छीन लेता है। चारों ओर करुण-क्रंदन और चीत्कार सुनाई पड़ता है। कितने बच्चे अनाथ होकर दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं, कितनी विधवाएँ अपने जीवन को सारहीन समझकर आत्महत्या कर लेती हैं, कितने परिवारों का दीपक हमेशा के लिए बुझ जाता है। युवकों के अभाव में देश का उत्पादन बंद हो जाता है।
बचे हुए वृद्ध न खेती कर सकते हैं और न कल-कारखानों में काम। परिणाम यह होता है कि युद्ध के बाद न कोई किसी कला का दक्ष बच पाता है और न वीर। देश में सर्वत्र गरीबी अपना विकराल मुँह फाडकर उसे डसने को तैयार रहती है। विस्फोटों के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है, उत्पादन कम होता है,
कल-कारखाने बंद हो जाते हैं। बम-विस्फोट से भव्य भवन धराशायी हो जाते हैं। सर्वत्र अशांति का राज्य छा जाता है। उत्पादन के अभाव में मूल्य इतने बढ़ जाते हैं कि किसी भी वस्तु को खरीदना संभव नहीं रहता। देश में अकाल की स्थिति आ जाती है। देश की जनता का नैतिक चरित्र गिर जाता है- ‘वुभुक्षितः किं न करोति पापम्।’ अतः युद्ध तथा युद्धोत्तर दोनों ही परिस्थितियाँ जनता के लिए अभिशाप बनकर सामने आती हैं।
युद्ध की आवश्यकता- यह युद्ध का एक पहलू है। यदि हम युद्ध के। | दूसरे पक्ष की ओर दृष्टिपात करें तो हम देखते हैं कि युद्ध हमारे लिए वरदान भी सिद्ध हो सकता है। इसका प्रमाण हमें उस समय मिला, जब पड़ोसी देश चीन ने भारत पर आक्रमण किया। पं.नेहरू की एक पुकार पर ही सारा देश सोना लिए खड़ा था। इसी प्रकार पाकिस्तान के आक्रमण के समय समस्त देश अपने सुख-वैभव को छोड़कर देश की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गया। यहाँ तक कि बंगला देश की लड़ाई में कितनी माताओं ने अपने वात्सल्य की परवाह न करके अपने गोद को सूना कर लिया।
कितनी बहिनों ने अपने स्नेह की परवाह न करके अपने भाइयों को देश की रक्षा के लिए प्रेषित किया एवं कितनी ही महिलाओं ने अपने सिंदूर की परवाह न करके अपने सुहाग को देश की रक्षा के लिए स्वेच्छा से अर्पित कर दिया। तात्पर्य यह है कि युद्ध से जन-जागरण एवं भावात्मक एकता की स्थापना में सहयोग मिलता है। युद्ध से देश की जनसंख्या कम होती है, युद्ध के समय बेकारी दूर हो जाती है, मनुष्यों
में आत्मबल का उदय होता है। यदि धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो पापियों, अधर्मियों एवं भ्रष्टाचारियों के विनाश के लिए युद्ध एक वरदान बन जाता है। निःशस्त्रीकरण अनिवार्य-जो भी हो, युद्ध मानव-कल्याण के लिए नहीं वरन् विनाश के लिए है। यदि विश्व में मानवता की रक्षा करनी है तो इसके लिए अनिवार्य है- शांति। नि:शस्त्रीकरण आज के युग में विश्व-शांति के लिए अनिवार्य है। वस्तुत: मानव का जीवन शांति से प्रारंभ होता है। देश में शांति की स्थापना दार्शनिकों का स्वप्न है। विश्व-प्रगति शांति पर ही निर्भर है।
इतिहास में स्वर्ण-युग की कल्पना शांति, प्रगति एवं समृद्धि के युग की ही कल्पना है। विज्ञान एवं कलाओं की उन्नति तभी संभव है, जब मानव मस्तक शांत हो। अतः देश के चतुर्मुख विकास के लिए शांति आवश्यक है।
विश्वशांति की माँग-आज का युद्ध संपूर्ण मानव-सभ्यता और समाज का विनाश कर देगा। इसीलिए विश्व के समस्त राष्ट्र एक स्वर से विश्व-शांति की माँग कर रहे हैं। महात्मा गांधी ने भारत में अहिंसा का प्रयोग किया। वे अहिंसा के सच्चे पुजारी थे। देश में शांति स्थापित करने के लिए हमारे प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने पंचशील को जन्म दिया। अहिंसा एवं शांति के अभाव में युद्ध आज विश्व का वरण करने के लिए तैयार है। घर में, पुर में, प्रदेश में ।
सर्वत्र शांति की आवश्यकता है। यदि कलह का बीज पनप गया, द्वेष की अग्नि भड़क उठी तो सभ्यता का गगनचुंबी प्रासाद क्षण-भर में धराशायी हो जाएगा। इस विनाशकारी परिस्थिति से विश्व की रक्षा का एकमात्र उपाय है- शांति।
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