Essay on Swami Dayanand Saraswati in hindi स्वामी दयानंद सरस्वती पर निबंध

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हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Essay on Swami Dayanand Saraswati in Hindi पर पुरा आर्टिकल। आज हम आपके सामने Swami Dayanand Saraswati के बारे में कुछ जानकारी लाये है जो आपको हिंदी essay के दवारा दी जाएगी। आईये शुरू करते है Essay on Swami Dayanand Saraswati in Hindi

Essay on Swami Dayanand Saraswati in hindi

प्रस्तावना :

जब-जब देश में कुरीतियाँ बढ़ जाती हैं अंधविश्वास प्रबल हो जाते हैं, धर्म के ठेकेदार पाखंडों को महत्व देने लगते हैं, तब कोई न कोई ऐसा महापुरुष जन्म लेता है, जो समाज को एक नया और सच्चा रास्ता दिखाता है। महर्षि दयानंद सरस्वती ऐसे ही महापुरुष थे। उन्होंने स में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने का पूरा प्रयत्न किया था। | जन्म व शिक्षा :

स्वामी दयानंद का जन्म संवत् 1824 ई. को प्रांत के टंकारा नामक स्थान पर हुआ था। दयानंद का बचपन का – ‘मूलशंकर’ था । इनके पिता का नाम अम्बा शंकर था। वे सनातनधर्मी त शिव के उपासक थे। इनकी शिक्षा घर पर हुई थी। आप बहुत कुशाग्र बुद्धि के तथा 29 वर्ष की आयु में ही आपने संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

शिवरात्रि की घटना :

शिवरात्रि के महान पर्व पर स्वामी दयानंद ने भी व्रत रखा। रात को आराधना करते समय उन्होंने देखा कि शिवलिंग पर रखी मिठाई को एक चूहा खा रहा है। इस घटना से उनके बाल मन में शंका पैदा हुई। वे सोचने लगे जब ये शिवजी अपनी स्वयं की रक्षा नहीं कर सकते तो पूरे विश्व का क्या होगा? इस घटना ने मूलशंकर के जीवन की दिशा बदल दी और वे वास्तविक शिव की खोज के लिए घर छोड़कर निकल पड़े।

ज्ञान की खोज :

शिवरात्रि की घटना, बहिन व चाचा की मृत्यु से इनके मन में वैराग्य की भावना उत्पन्न हो गई। बीस वर्ष की आयु में उनके पिता ने उनका विवाह कराना चाहा लेकिन वे बिना बताए घर से निकल गए और कई वर्षों तक इधर-उधर घूम-फिरकर ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी सुबोधानंद से आपने संन्यास लिया तथा उनका नाम ‘मूलशंकर’ से बदलकर ‘दयानंद’ रखा गया। इसके बाद स्वामी जी ने मथुरा के स्वामी विरजानंदजी, जो अंधे थे, उन्हें अपना गुरु बना लिया। गुरुजी से शिक्षित होने पर उन्होंने गरु-दक्षिणा के रूप में प्रतिज्ञा की थी कि वे अपना पूरा जीवन देश-विदेश में वेदों के ज्ञान का प्रचार करने में लगा देंगे।

वैदिक धर्म का प्रचार :

स्वामी दयानंद ने लोगों को सच्चे वैदिक धर्म का संदेश दिया। इन्होंने हरिद्वार में होने वाले कुंभ मेले में जाकर पाखंडों का वादन किया। हरिद्वार तथा काशी के अनेक पण्डितों को इन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया तथा वहाँ जाकर वेदों का प्रचार किया

आर्य-समाज की स्थापना :

स्वामी दयानंद सरस्वती ने सबसे पहले मुम्बई  में ‘आर्य-समाज’ की स्थापना की। फिर तो पूरा पंजाब इनका भक्त बन  गया। इसके बाद लाहौर में कई आर्य-समाज बने। उन्होंने मूर्ति पूजा का । विशेष खंडन किया। उन्होंने समाज-सुधार पर विशेष बल दिया और छूआछूत  को दूर करने के लिए शुद्धि-आन्दोलन भी चलाया। स्वामी जी बाल-विवाह के कट्टर विरोधी थे तथा स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह आदि पर विशेष बल दिया।

ऋषि बोधोत्सव तथा निर्वाणोत्सव :

20 अक्तूबर, सन् 1883 ई. को 59 वर्ष की आयु में मंगलवार को दीपावली के दिन अजमेर में स्वामी जी का देहान्त हो गया। आर्य-समाज़ शिवरात्रि के पवित्र पर्व पर ऋषि बोधोत्सव मनाते हैं तथा दीपावली के दिन ऋषि निर्वाणोत्सव मनाया जाता है।

उपसंहार :

स्वामी जी ने समाज में सुधार का जो बीड़ा उठाया था,  वे सुधार कार्य आज सरकार ने अपने हाथों में लिए हैं। हमें भी महर्षि जी के बताए रास्ते पर चलकर समाज को उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए, यही उनके लिए सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

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Essay on Swami Dayanand Saraswati in hindi

भारत में जब-जब धर्म और समाज में कोई विकृति आई है और जन-जीवन अवनति के मार्ग पर चला है तब-तब इस पुण्य भूमि पर कोई न कोई विभूति अवतरित हुई है। ऐसी ही विभूतियों में स्वामी दयानन्द का नाम भी शामिल है। आपने समाज में व्याप्त अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने में अहम् भूमिका निभाई। आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी को मान्यता देने के लिए स्वभाषा और जाति के स्वाभिमान को जागृत किया। स्वामी दयानन्द का जन्म उस समय हुआ जब देश चारों ओर से संकटों और आपदाओं से घिरा हुआ था ।

हमें विदेशी शासकों ने अपने शिकंजे में कस सब प्रकार के अधिकारों से वंचित कर अमानवीयता के वातावरण में जीने के लिए बाध्य कर दिया था। स्वामी दयानन्द जी ने मानवता विरोधी गतिविधियों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन कर उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया।

स्वामी दयानन्द जी का जन्म गुजरात राज्य के मौरी के टंकारा नामक ग्राम में 1824 को हुआ था। आपके पिता का नाम कर्षन जी था। वे गांव के बड़े जमीदारों में शामिल थे। स्वामी दयानन्द जी का बचपन का नाम मूलशंकर था। बालक मूलशंकर बचपन से ही मेधावी थे। स्वामी जी की प्रारम्भिक शिक्षा संस्बत विषय में हुई। 14 वर्ष की आयु में ही मूलशंकर को बहुत से शास्त्र व ग्रन्थ कंठस्थ हो चुके थे।

 

इनके पिता शैव धर्म के उपासक थे। एक दिन शिव रात्रि को मूलशंकर अपने पिता के साथ शिवालय गये। रात भर वहां चले जागरण में उन्होंने शिव की महत्ता को सुना। जागरण के दौरान कई लोग सो गये लेकिन मूलशंकर जागरण सनता रहा। इस दौरान उन्होंने देखा कि एक चूहा शिवजी की मूर्ति पर चढ़ी मिठाई खा रहा है। इस घटना को देख मूलशंकर के मन में कई शंकायें उत्पन्न हुई।

इन शंकाओं का समाधान उनके पिता द्वारा किया गया लेकिन वे अपने पिता की किसी भी बात से संतुष्ट न हो सके। इसके कुछ दिन बाद ही उनकी चौदह वर्षीय बहन की मृत्यु हो गयी।

इन दोनों घटनाओं ने मूलशंकर के मन पर गहरा प्रभाव डाला। और वे वैराग्य की ओर उन्मुख हो गये। मूलशंकर की यह दशा देख उनके घरवालों ने उनके विवाह की तैयारी शुरू कर दी। विवाह की तैयारियों के दौरान ही एक दिन घर से निकलने के बाद आप अहमदाबाद पैदल ही आये।

यहां रहने के कुछ दिन बाद आप बड़ौदा में रहे। दो वर्ष भ्रमण के बाद मूलशंकर की भेंट दंडी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से हुई। उन्होंने मूलशंकर को विधिपूर्वक संन्यास दिलाया।

इसके बाद से उनका नाम मूलशंकर की जगह दयानन्द सरस्वती हो गया। इसके बाद स्वामी दयानन्द विभिन्न तीर्थ स्थलों, धार्मिक स्थानों और पूज्य क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए मथुरा पहुंचे।

यहां स्वामी जी का सम्पर्क महान योगी और सन्त स्वामी विरजानन्द जी से हुआ। स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द जी को अपना गुरु बनाया और उनके नेतृत्व में उन्होंने 35 वर्षों तक वेदों का अध्ययन किया। स्वामी विरजानन्द जी अपने शिष्यों से भेंट में लौंग लिया करते थे। किन्तु उन्होंने स्वामी दयानन्द से गुरु दक्षिणा के रूप में आदेश दिया कि अब जाओ, और देश में फैले हुए समस्त प्रकार के अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करो।

गुरू आदेश को स्वीकार कर दयानन्द जी अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिए देश के भ्रमण पर निकल गये।

देश के विभिन्न भागों में भ्रमण करते हुए स्वामी जी ने मुम्बई में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की। अन्धविश्वासों और रूढ़ियों का विरोध करते हुए उन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध किया। स्वामी जी ने एक महान् और सर्वप्रधान धर्म ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना की। इसके अलावा ‘ऋग्वेद की भूमिका’, ‘व्यवहार भानु’ तथा ‘वेदांग प्रकाश’ नामक आपके श्रेष्ठ ग्रन्थ हैं।

स्वामी जी को धर्म के ठेकेदार कहलाने वाले कुछ लोगों जिन्हें अपनी धर्म रूपी ठेकेदारी खत्म होती नजर आ रही थी उन्होंने स्वामी जी की हत्या की कई साजिशें भी रचीं। इसी साजिश के तहत उन्हें जब वह जोधपुर नरेश के यहां गये थे तो उन्हें एक वेश्या ने षडयंत्र रच दूध में जहर पिला दिया। जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।

स्वामी जी ने ब्रह्मचर्य पर बल दिया। उन्होंने लड़के के लिए विवाह की आयु 25 वर्ष तथा लड़की को विवाह योग्य 16 वर्ष बाद बताया। स्वामी जी बालविवाह के कट्टर विरोधी थे। उनका कहना था कि इससे सामाजिक पतन तो होता ही है साथ ही इसे विधवापन का मूल कारण भी बताया।

उनका कहना था कि बाल विवाह शक्ति हीनता को जन्म देता है जिससे कम उम्र में मृत्यु हो जाना स्वाभाविक है। स्वामी जी ने विधवा विवाह व पुनर्विवाह का समर्थन किया।

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स्वामी दयानंद सरस्वती पर निबंध

सन्त महात्माओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम अपने अनोखे व्यक्तित्व और बेमिसाल प्रभाव के कारण जन-जन के मन में आदरपूर्वक वसा हुआ है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने एक साथ ही आडम्बरों, अन्धविश्वासों, अमानवीय तत्त्वों का जमकर विरोध करते हुए मानवीय सहानुभूति का दिव्य सन्देश दिया। राष्ट्रभाषा हिन्दी की मान्यता देने के लिए स्वभाषा और जाति के स्वाभिमान को जगाया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का जन्म गुजरात राज्य के मोरवी क्षेत्र में स्थित टंकारा नामक स्थान में सन् 1891 को हुआ था।

आपके पिताश्री सनातन धर्म के कटट्टर अनुयायी और प्रतिपालक थे। स्वामी दयानन्द जी का वचपन का नाम मूलशंकर था। स्वामी जी की आरम्भिक शिक्षा संस्कृत विषय के साथ हुई। इसकी विशाल जानकारी प्राप्त करने के साथ स्वामी जी के संस्कार, दिव्य और अद्भुत रूप में दिखाई पड़ने लगे और लगभग 12 वर्ष की आयु के होते-होते आपके संस्कार पूर्णतः वदल गए।

हम यही भली-भांति जानते हैं कि महान् पुरुपों के जीवन में कोई-न-कोई कभी ऐसी घटना घट जाती है जो उनके जीवन को बदल डालती है। स्वामी जी के भी जीवन में एक दिन एक ऐसी घटना घट ही गयी। स्वामी जी ने एक दिन शिवरात्रि के सुअवसर पर शिवलिंग पर नैवेद्य खाते हुए चूहे को देखा। इसे देखकर स्वामी जी के मन में भगवान शिव को प्राप्त करने की लालसा या अभिलाषा अत्यन्त तीव्र हो उठी।

लगभग 21 वर्ष की आयु में वे अपने हर तरह के सम्पन्न परिवार को छोड़कर ।

मन्यास पथ पर निकल पड़े। वे योग-साधना कर के शिव की प्राप्ति के लिए कठोर साधना-सिद्धि की खोज में निकल पड़े थे। इस साधना-सिद्धि के लिए वे अपने साधना के पथ में अनेक प्रकार के यागियों, सिद्धों और महात्माओं से मिलते रहे। वे विभिन्न तीर्थ स्थलों, धार्मिक स्थानों और पूज्य क्षेत्रों में भी भ्रमण करते रहे।

स्वामी जी ने बाल-विवाह का कड़ा विरोध करते हुए इसे न केवल निर्वलता और जम्वहानता का मुख्य कारण माना अपितु इसके द्वारा सामाजिक पतन के अन्तर्गत विधवापन का मूल कारण भी बताया क्योंकि बाल विवाह अल्पायु में होने के कारण शक्तिहीनता को जन्म देता है जिससे कम उम्र में मृत्यु हो जाना स्वाभाविक हो जाता है।

इम बाल-विवाह की प्रथा पर रोक लगाने के लिए सुझाव के साथ ही स्वामी जी ने विधवा विवाह या पुनर्विवाह की जोरदार प्रथा चलाई थी।

ग्वामी दयानन्द सरस्वती जा न हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए भरपूर कोशिश की। उनकी हिन्दी के प्रति अपार अनुराग और श्रद्धा थी । यद्यपि व अहिन्दी भापी थे लेकिन उन्होंने संस्कृत भाषा और वैदिक धर्म को ऊंचा स्थान दिलाने के साथ हिन्दी को भी प्रतिष्ठित किया है। आर्य समाज द्वारा स्थापित दयानन्द विद्यालय महाविद्यालय भारतीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कार्य में लगे हुए हैं।

वास्तव में ग्वामी दयानन्द मरना । [३, युग पुरुप य ज्ञा काल पटल पर निरन्तर श्रद्धा के साथ स्मरण किए जाते रहेंगे। हमारा यह दुर्भाग्य ही था कि स्वामी जी को धर्म प्रचारार्थ जोधपुर नरेश * यहाँ एक वेश्या ने प्रतिशोध वश विषैला दूध पिला दिया जिससे स्वामी जी की लगभग 2 वर्ष की अल्पायु में सन् 1883 में मृत्यु हो गई।

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Written by

Romi Sharma

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