असहमति या मतभेद लोकतंत्र की नींव Disagreement or Disagreement Foundation of democracy

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भिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मानवीय अधिकार है और वह आधार है, जिस पर लोकतंत्र का निर्माण होता है। अभिव्यक्ति स्वीकृत रूप है और इसका कारण इस तथ्य में निहित है कि यह नागरिकों को सरकार की कार्रवाई और निर्णयों पर सवाल उठाने और नीतियों और परिवर्तनों के खिलाफ विरोध करने की अनुमति देता हैं।

मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, हमारे देश में एक खतरनाक स्थिति में भी है, जब मीडिया सरकार और नीति निर्माताओं की उनके वर्तमान और भविष्य के फैसलों के बारे में जांच और पूछताछ करने लगता है और समीक्षा करता है तो दर्शकों को अच्छी तरह से अवगत कराया जा सकता है। जब भी कुछ पत्रकार या रिपोर्टर सरकार की कठपुतली बनने से असहमत होते हैं और जनता को दिखाते हैं जो वास्तव में देश के परिदृश्य को निष्पक्ष तरीके से समझने में उन्हें लाभान्वित करता है, तो उसे धमकी दी जाती है।

Disagreement or Disagreement

अगर भारतीय लोकतंत्र में इस तरह की स्थितियां बनी रहती हैं, तो उस दिन जब हर नागरिक सरकार के इस रूप से नफरत करना शुरू कर देगा, वह बहुत दूर नहीं होगा। लोकतंत्र किसी भी तरीके से ‘तानाशाहो’ न बने, इसके लिए असहमति या असंतोष बहुत महत्वपूर्ण है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे नेताओं को यह महसूस करना चाहिए कि यह असहमति किसी भी तरह से उनके खिलाफ नहीं है।

कुछ मुद्दों पर असहमति या बहस से केवल बेहतर नीतियां और निर्णय तैयार होते हैं, जो पूरे देश को लाभान्वित करते हैं, यही वास्तव में या सरकार में सत्ता में रहने वालों का उद्देश्य होना चाहिए।

जब हम असहमत होने के अधिकार को नकार देते हैं तो बदलाव की संभावना को भी खत्म कर देते हैं। इसी से तो समाज बर्बर होता जाता है। यदि हम बड़ी संख्या में असहमति जताने के अपने अधिकार की रक्षा करें तो बदलाव सुनिश्चित होगा। हमारे लोकतंत्र में हम जिन स्वतंत्रताओं का लुत्फ उठाते हैं, उसमें नाराज होने या गहरी असहमति जताने का अधिकार भी शामिल है। बिना किसी रुकावट या भय के सोच-विचार करने और उसे बिना लाग-लपेट लिखने, बोलने और कहने की आजादी की यही तो नौंव है। हमारे जैसे सुंदर विविधताओं वाले देश में कभी छीना न जा सकने वाला असहमति का अधिकार ही हमें एक राष्ट्र के रूप में वह बनाता है, जो हम हैं।

निःसंदेश इसमें अधिकार के साथ कई जोखिम जुड़े हैं, जिसमें निशाना बनाए जाने का जोखिम भी शामिल है। लेकिन जब तक यह अधिकार सुपरिभाषित, तार्किक सीमा के भीतर रहे, तो ज्यादातर लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन जब भीड़ आपको काट डालने के लिए आए. आपके घर में तोड़फोड़ की जाए. किताबें जला दी जाएं. आपको फिल्म प्रदर्शित न करने दी जाए या आजकल जो ज्यादातर हो रहा है कि आपको मारने की सुपारी किसी को दे दी जाए तो यह बात खतरनाक हो जाती है। लेखक, पत्रकार, चित्रकार और अब तो सामाजिक कार्यकर्ता तथा तार्किक सोच को बढ़ाने वालों पर भी खुलेआम हमले हो रहे हैं और उनकी हत्या की जा रही है।

यह तय करना रस्सी पर चलने जैसी चुनौती है कि लिखते, चित्रकारी करते या बोलते समय लक्ष्मण रेखा ठीक-ठीक कहां खींची जाए। मजे की बात यह है कि सत्य की कोई सीमा नहीं होती। जब आप किसी ऐसे विषय पर बोलना चाहते हैं जिसमें आपका बहुत भरोसा हो तो ऐसी कोई रेखा नहीं खींची जा सकती कि जहां आप रुक जाएं। सत्य तो हमेशा संपूर्ण होता है। जब आप अपने विवेक पर भरोसा रखकर कोई रेखा खींचते हैं तो आप अर्धसत्य को. दूसरे को मूर्ख बनाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। सबसे बदकर तो आप अपनी अंतरात्मा को धोखा देते हैं।

कुछ मामलों में तो ऐसी कोई रेखा खींचना संभव भी नहीं होता। जैसे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाला बीच में रूक नहीं सकता, फिर चाहे उसे साफ नजर आ रहा हो कि इससे आगे बढ़ने पर खतरा है, बहुत गंभीर खतरा। फिर भी भारत एक ऐसा बहादुर देश है जहां कई आम लोग, साधारण नागरिक ऐसे हैं, जिनके पास वचाव के साधन नहीं हैं, उन्हें बचाने वाला कोई नहीं है और फिर भी वे आगे जाकर सच कहने से नहीं डरते। यही लोग हैं जो हमारे लोकतंत्र की चमक बरकरार रखते हैं।

पुलिस की जांच शुरू होने के पहले ही मामले का राजनीतिकरण हो जाता है। धर्म, जाति, समुदाय और राजनीतिक रिश्तों के मुद्दे घसीटकर मामले को जटिल बना (यहां पढ़ें उलझा) दिया जाता है। आपको इसका पता चले इसके पहले ही यह खबर मर जाती है, क्योंकि कहीं और इससे भी भयानक अपराध हो जाता है, जो सुर्खियां खींच लेता है और आपका ध्यान वहां चला जाता है। ऐसा होने से अपराधी निकल भागता है। हम आज ऐसे राष्ट्र हैं जो मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहा है, क्योंकि हर कहीं इतना कुछ हो रहा है और सब कुछ बहुत घिनौना कि किसी के लिए भी सारी बातों पर ध्यान केंद्रित करना असंभव ही है।

मकबूल फिदा हुसैन मौजूदा दौर के हमारे सबसे महान चित्रकार थे। उन्हें अस्सी साल से ज्यादा की उम्र में देश छोड़कर खाड़ी के देश में रहना पड़ा, क्योंकि हुड़दंगी उन्हें शांति से रहने और काम करने नहीं दे रहे थे। उन्होंने उनके चित्रों को नष्ट किया, उनके प्रदर्शनों में बाधा डाली, तोड़-फोड़ की। इसके बावजूद हुसैन उतने उत्साही हिंदू थे, जितना कोई अन्य हो सकता है। सनकियों के एक दूसरे गिरोह ने सलमान रुश्दी के लिए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत करना नामुमकिन बना दिया। अब तो हालात यह है कि स्थानीय कार्टूनिस्ट भी व्यंग्यचित्रों के माध्यम से असहमति जताने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करने से घबराते हैं।

जब हम किसी चीज से असहमत होने का अधिकार नकार देते हैं तो हम बदलाव की संभावना को भी खत्म कर देते हैं। इसी तरह तो समाज बर्बर, निर्जीव और चिढ़ पैदा करने की हद तक उबाऊ होता जाता है। आप देश के स्वतंत्र नागरिक बने रहना चाहते हैं तो आक्रामक असहमति जताने के अपने अधिकार की रक्षा कीजिए। यदि बड़ी संख्या में लोग ऐसा करें तो बदलाव को टाला नहीं जा सकेगा, बल्कि यह सुनिश्चित होगा। बदलाव ही तो किसी जीवित संस्कृति की पहचान है।

 

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Written by

Romi Sharma

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