भारत में ग्रामीण जीवन पर अनुच्छेद – Bharat ka gramin Jivan Par Essay in Hindi

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हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु भारत में ग्रामीण जीवन पर पुरा आर्टिकल। आज हम आपके सामने Bharat ka gramin Jivan के बारे में कुछ जानकारी लाये है जो आपको हिंदी essay के दवारा दी जाएगी। आईये शुरू करते है भारत में ग्रामीण जीवन पर अनुच्छेद

Bharat ka gramin Jivan Par Essay

प्रस्तावना :

हमारा भारतवर्ष गाँवों का देश है। भारतवर्ष में छह लाख से भी अधिक गाँव हैं और हमारे देश की कुल 70% से ज्यादा जनसंख्या गाँवों में बसती है। किसी ने सच ही कहा है कि गाँवों की रचना स्वयं भगवान ने की है जबकि नगर और महानगर मनुष्यों की देन है।

भारतीय गाँवों का उन्नत रूप :

प्राचीन समय में भारत में गाँवों में रहने वाले लोगों को अपने कृषि-कार्य पर गर्व था। उन दिनों गाँववासी गाँव की जिन्दगी से प्रसन्न थे क्योंकि उन्होंने नगरों की चकाचौंध को नहीं देखा था। यहाँ के गाँवों की उपजाऊ भूमि अनाज के रूप में सोना पैदा करती थी। गाँववासी भी पूरी मेहनत से कार्य करते थे और इसीलिए गाँवों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी।

भारतीय गाँवों का पिछड़ा रूप :

अंग्रेजों ने अपने शासन काल में कभी भी गाँवों की प्रगति की ओर ध्यान नहीं दिया। वे तो बड़े-बड़े नगर बसाने में ही लगे रहे, ताकि वहाँ पर अपना पूरा अधिकार जमा सकें। प्रकृति की मार भी किसानों के जीवन पर सदैव प्रहार करती रही। वे कभी सूखे की चपेट में आते थे, तो कभी बाढ़ की चपेट में। उनके ऊपर कभी साहूकारों ने अत्याचार किए तो कभी जमींदारों ने तो कभी व्यापारियों ने।

भारतीय ग्रामीणों की वर्तमान स्थिति :

अंग्रेजों द्वारा किए गए शोषण के कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी ग्रामीण जीवन पनप नहीं पाया है। गाँववासी एकदम साधारण जीवन जीते हैं। वे मिट्टी के बने कच्चे घरों में रहते हैं। वे सादा जीवन जीते हैं और एकदम सीधा-सच्चा भोजन करते हैं। औरतें भी खेतों में काम करती हैं।

आज भी गाँवों में शिक्षा की कमी है तथा आज भी वे जात-पात, ऊँच-नीच, बाल-विवाह जैसी कुप्रथा से छुटकारा नहीं पा सके हैं। इसका सबसे बड़ा कारण गाँवों में धन तथा शिक्षा की कमी है। शिक्षा की कमी के कारण वे छोटी-छोटी बातों को बहुत तूल देते हैं और इसके लिए लड़ाई-झगड़ों पर उतर आते हैं और फिर मेहनत से कमाया धन कोर्ट-कचहरीयों के चक्कर काटने में समाप्त हो जाता है। आज भी गाँवों में छूआछूत तथा अंधविश्वास अपने चरम पर है।

वर्तमान समय में गाँवों की बुरी स्थिति का दूसरा कारण गाँववासियों का शहरों के प्रति बढ़ता आकर्षण है। आज के गाँव वाले इतने मेहनती नहीं रहे, जितने वे पहले थे। उनके बच्चे आज टेलीविजन तथा सिनेमा के माध्यम से आधुनिकता का नंगा नाच देखते हैं और फिर वे भी इसी आकर्षण के वशीभूत होकर शहरों में बसना चाहते हैं।

उपसंहार :

इन सब नकारात्मक तथ्यों के बावजूद भी हमारी वास्तविक जिन्दगी गाँवों में ही बसती है। देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् हमारी सरकार ग्रामीणों की दशा सुधारने के लिए प्रयत्नशील है। भूमिहीन किसानों को भूमि दी जा रही है, ताकि वे उस भूमि पर खेती-बाड़ी करके अपनी रोजी-रोटी कमा सकें। सरकार गाँवों में अस्पताल तथा पाठशालाएँ खोल रही है। सर्व शिक्षा अभियान’ चलाए जा रहे हैं।

ग्राम-पंचायतें भी इस दिशा में एक ठोस कदम है। सहकारी संस्थाओं के कारण किसानों को अपनी उपज के सही दाम भी मिल रहे हैं। किसानों को खेती-बाडी के नए-नए आधुनिक तरीके सिखाए जा रहे हैं, जिससे वे बढ़ती जनसंख्या के अनुसार अनाज पैदा करके धन कमा सके। हम सभी आशावान हैं कि सरकार तथा हमारे मिले-जुले ‘प्रयासों से निकट भविष्य में गाँवों की स्थिति में सुधार अवश्य होगा। वहाँ पर बच्चे शिक्षित होंगे, गाँववासी भी पक्के घरों में रहेंगे तथा करीतियों से दूर होंगे।

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Bharat ka gramin Jivan Par Essay in Hindi

 

भारत गांवों का देश है, जहां की सत्तर प्रतिशत से अधिक की जनसंख्या गांवों में ही निवास करती है। यदि यह कहा जाए कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ग्रामीण जीवन की प्राचीनता एवं महत्व को उजागर करने वाली एक प्राचीन उक्ति है कि, “नगरों का निर्माण मनुष्य ने किया, ग्राम ईश्वर द्वारा बसाए गए।” निःसंदेह हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का पूर्ण और स्वाभाविक विकास ग्रामीण अंचलों में ही हुआ है। भारत के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के अंतर्गत पस सभ्यता के उल्लेख प्राप्त होते हैं, वह ग्रामीण सभ्यता ही थी। इस परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि जिस समय सम्भवतः नगरों अथवा शहरों की परिकल्पना भी नहीं की गई होगी, उस समय सभ्यता का पल्लवन छोटे-छोटे ग्रामों के रूप में हुआ था।

ग्रामीण भारत में निवास करने वाली सम्पूर्ण जनसंख्या का मुख्य कार्य कृषि कर्म है। अधिकांश शहरी आवश्यकताओं की पूर्ति गांवों द्वारा ही की जाती है। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में गांव राष्ट्र के विकास एवं प्रगति में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। भारतीय गांवों से लगभग 550 प्रकार की व्यापारिक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण लकड़ियां प्राप्त होती हैं, जिनका उपयोग फर्नीचर, माचिस, आदि बनाने में होता है। इसके अतिरिक्त लकड़ी और गोबर मिलकर देश के कुल शक्ति संसाधनों की 34.6 प्रतिशत शक्ति का उत्पादन करते हैं। सम्पूर्ण देश में सभी प्रकार के खाद्यान्नों की आपूर्ति गांव ही करते हैं। ग्रामीण अंचलों में कुछ ऐसी वनस्पतियां तथा जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं, जिनसे विभिन्न प्रकार की औषधियां तैयार की जाती हैं।

ग्रामीण जीवन फल-फूल से भरपूर होने के कारण पर्यावरण को शुद्धता प्रदान करता है तथा भरपूर मात्रा में ऑक्सीजन भी प्रदान करता है। गांवों में बनी विभिन्न वस्तुओं, जैसे-लाख, तारपीन का तेल, चन्दन का तेल एवं चंदन की लकड़ी से बनी विभिन्न कलात्मक वस्तुएं, आदिवासी पेंटिंग्स. इत्यादि का निर्यात कर सरकार द्वारा प्रतिवर्ष लगभग 50 करोड़ रुपए की विदेशी मद्रा का अर्जन किया जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में गांवों की अतिमहत्वपूर्ण भागीदारी को देखते हुए ही उन्हें ‘देश की राष्ट्रीय निधि’ की संज्ञा प्रदान की गई है।

अतः हमें अपने देश की इस अमूल्य निधि के विकास हेतु विभिन्न प्रयत्न करने चाहिए, क्योंकि विकसित गांव ही विकसित भारत का आधार-स्तंभ बन सकते हैं। पहले ‘गांव’ शब्द पर दृष्टिपात करते ही तंग गलियों वाली, अंधकारपूर्ण कोठरियों और मलिन बस्तियों की एक झलक आंखों में तैर जाती थी। ऐसा प्रतीत होता था कि समस्त कुरीतियां, अंधविश्वास एवं रूढ़िगत मान्यताओं के समन्वय का दूसरा नाम ही गांव है। किंतु, आधुनिक युग में यदि गांवों का अवलोकन किया जाए, तो आश्चर्यजनक अनुभव प्राप्त होते हैं। विकास की निरंतर प्रक्रिया ने गांवों को एक नई परिभाषा दी है। निःसंदेह इस विकास प्रक्रिया का उद्गम बिंदु भारतीय कृषि विकास के अंकुरण में समाहित है। भारतीय अर्थव्यवस्था की प्राण वायु-कृषि विकास के बहुआयामी संभावनाओं के प्रकटीकरण हेतु उद्यत है।

हाल के वर्षों में कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आया है। परंपरागत तरीके से खेती करने वाले किसान अब उच्च कोटि के मशीनों, कल-पुों, बीजों, उर्वरको। का प्रयोग करने लगे हैं। किसानों के महत् उद्योग से भारत अब खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर हो चला है। कृषि के क्षेत्र में निहित अपार संभावनाओं की दोहन-प्रक्रिया शुरू हो गई है। किसान अब परंपरागत खाद्यान्नों के स्थान पर नकदी या व्यावसायिक फसलों के उत्पादन हेतु प्रवृत्त हुए हैं।

इससे उनकी आमदनी के स्रोत बढ़े हैं। बागवानी कृषि एवं पुष्पोत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है। जोतों की हदबंदी की जा रही है तथा भूमि-सुधार की प्रक्रिया जारी है। आधुनिक युग में, तकनीकी क्षेत्रों में हुई प्रगति का असर कृषि में भी दिखाई पड़ने लगा है। भूमि संबंधी रिकॉर्डों का आधुनिकीकरण इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। आंध्र प्रदेश एवं केरल में कोई भी किसान न्यूनतम राशि का भुगतान कर भूमि संबंधी आंकड़ों को प्राप्त कर सकता है, जो अन्यथा संभव नहीं था। कृषि के उत्तरोत्तर विकास के लिए इसे उद्योग का स्तर प्रदान करने की मांग हो रही है। अगर यह मांग स्वीकृत हो गई तो कृषि विकास की विपुल स्रोतों का अक्षय भंडार बन जाएगा। अभी ही, निर्यातोन्मुख कृषि की विकास के प्रति सरकार कृत संकल्प है।

जीवन के प्रत्येक परिवेश के लिए शिक्षा एक न्यूनतम सच्चाई है। वस्तुतः, इसी अस्त्र का प्रयोग कर मानव ग्रामीण से शहरी बन सका। परंतु, इसका अर्थ यह नहीं लेना चहिए कि ग्रामीणों को कोई सरोकार ही नहीं है। वस्ततः भारतीय ग्रामीण ज्ञान के अंतःचक्षुओं से परिपूर्ण होता है। उसे प्रकृति की विराट सत्ता पर अगाध विश्वास है तथा आम के पेड़ में इमली नहीं फलती-इस तथ्य के उदघाटन के लिए उसे किसी आयातित ज्ञान की आवश्यकता भी नहीं होती। जब-जब पढ़े-लिखे विशिष्ट जनों की वजह से भारत संकट में आया है, इन्हीं निरक्षरों ने अपना वर्चस्व न्योछावर कर, इसका मान बढ़ाया है। परंत. जहां तक ग्रामीण शिक्षा का प्रश्न है, सरकार ने इस दिशा में भी कई आवाश्यक कदम उठाए हैं। शिक्षा गारंटी योजना के अंतर्गत प्रत्येक 1 किमी के क्षेत्र में यदि विद्यालय नहीं है तो उसका निर्माण एवं संचालन सरकार की जिम्मेदारी है।

इस दिशा में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के प्रयास भी प्रशंसनीय हैं, जिसने संचार माध्यमों का उपयोग कर शिक्षा की अपरिहार्यता सुनिश्चित करने का महोद्योगी कार्य किया है। अब गांवों में पढ़ने की एक लहर चल पड़ी है। बच्चों को तो छोड़ ही दें, बड़े-बुजुर्ग भी प्रौढ़-शिक्षा कार्यक्रमों से लाभान्वित हो रहे हैं। हाल ही में इस दिशा में एक मजबूत कदम उठाया गया है, वह है ग्रामसैट की स्थापना। इससे सुदूर क्षेत्रों में स्थिति ग्रामों को भी शिक्षा के नए रूपों से परिचित कराया जा सका है।

मनुष्य ही नहीं जीव-जंतु भी अपने बच्चों को मौसम की प्रतिकूलता से बचाने और सुरक्षा के लिए मकान का निर्माण करते हैं, जो इन्हें जीवन से संघर्ष करने का आत्मविश्वास देता है। मकान के निर्माण से मनुष्य की रचनात्मक शक्तियों में वृद्धि होती है एवं इससे वह अपने जीवन को बेहतर बनाने की कला सीख लेता है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में आवास समस्या के प्रति सरकार सर्वप्रथम चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में उन्मुख हुई, परंतु इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं हो पाया। 1985-86 में इंदिरा आवास योजना से ग्रामीण आवासों की समस्या सुलझती नजर आई।

अब, इस समस्या के शीघ्र निपटान के लिए सरकार कृत संकल्प है। 1998 ई. में सरकार ने अपनी ‘राष्ट्रीय आवास नीति’ की घोषणा की। इस नीति के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में 13 लाख मकान बनाने का प्रस्ताव किया गया। इंदिरा आवास योजना के ही अंतर्गत, वैसे परिवार जो निर्धनता रेखा से नीचे निवास करते हैं, एक अन्य योजना के अंतर्गत मकान की सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। तात्पर्य है कि यदि इसी रफ्तार से आवास-निर्माण की प्रक्रिया जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब प्रत्येक ग्रामीण के पास सिर छुपाने के लिए एक छत होगी।

मनुष्य केवल पेट लेकर ही तो पैदा नहीं होता, उसे अपनी आजीविका के लिए परम सत्ता ने दो हाथ भी दिए हैं, परंतु उस समय स्थिति बड़ी बेढब बन जाती है जब इन हाथों को कोई काम नहीं मिलता। ग्रामीण जनता इस मनःस्थिति की सर्वाधिक शिकार है। गांवों में बेरोजगारी के कई रूप मिल जाते हैं।

अस्सी के दशक में इस समस्या के समाधान के प्रयास आरंभ हुए। 2 अक्टूबर, 1980 को समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम लागू किया गया, जिसका उद्देश्य ग्रामीणों को निर्धनता स्तर से ऊपर उठाना था। इसके पश्चात् ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजित करने के कई सार्थक प्रयास हुए। इनके अतिरिक्त रोजगार के विकल्प खड़ा करने में सहकारिता आंदोलन की भूमिका सराहनीय है। इन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में फैली बेरोजगारी को समाप्त करने की दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया है। व्यक्ति समष्टि के लिए और समष्टि व्यक्ति के लिए’ का मूल मंत्र लिए ये संस्थाएं गांवों का पारस्परिक सर्वोदय करने को प्रवृत्त हैं। प्राथमिक कृषि ऋण संस्थाओं-पैक्स के जरिए यह ग्रामीण निर्धनों, छोटे किसानों, सीमांत किसानों, खेतिहर मजदूरों यहां तक कि छोटे कारीगरों और हस्तशिल्पियों को साहूकारों और सूदखोरों की लूट-खसोट से बचाता है।

साथ ही यह बिचौलियों की अनुचित और शोषणकारी हरकतों से उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों की रक्षा करता है। पंजाब में मंडी प्रणाली इसका ज्वलंत उदाहरण है। सहकारिता आंदोलन के प्रयासों से दुग्ध व्यवसाय में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर पहुंच गया है। इसके द्वारा ‘हरित क्रांति और श्वेत क्रांति’ का सूत्रपात हुआ तथा एक प्रगतिशील कृषक समाज उभरा। अभी भी यह क्रांति-क्रम थमा नहीं है क्योंकि इसका प्रकटीकरण ‘नीली क्रांति’ , पीली क्रांति’ एवं ‘रजत क्रांति’ के रूप में लगातार हो रहा है। इसके प्रयासों से सूती उद्योग के बाद चीनी उद्योग सबसे बड़ा कृषि उत्पादक उद्योग बन गया है।।

 

आजकल, गांवों में पहले की तरह शाम होते ही अंधेरा का साम्राज्य कायम नहीं हो जाता बल्कि लोग विद्युतीकरण का लाभ उठाते हुए प्रकाशमय जीवन जी रहे हैं। देश की ग्रामीण जनता को विद्युत आपूर्ति नियमित रूप से हो, इसके लिए सरकार की योजनाएं कार्यान्वित हैं। साथ ही ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों, यथा-गोबर गैस, बायो गैस, सौर ऊर्जा आदि का भी समुचित दोहन किया जा रहा है। खाना बनाने के लिए धुंआरहित चूल्हों का वितरण जारी है।

विद्युत की समुचित व्यवस्था से सिंचाई-प्रसार क्षेत्र बढ़ा है। पहले जो ग्रामीण केवल रेडियो मात्र से अपना मनोरंजन करने को विवश थे वे अब टेलीविजन के माध्यम से संचार माध्यमों का चमत्कार देख पा रहे हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों के निर्माण की प्रक्रिया को तेज किया जा रहा है। साथ ही इन्हें शहरों से भी जोड़ने के प्रयास जारी हैं। सरकार की नई संचार नीतियों के अंतर्गत अब दूरभाष को गांवों तक पहुंचाया गया है।

1986 में स्थापित राजीव गांधी राष्ट्रीय पेय जल मिशन के प्रयासों से भारतीय ग्रामीण जनता का 95% भाग पीने योग्य पानी की सुविधा प्राप्त कर सका है। ‘राष्ट्रीय फसल बीमा योजना के अंतर्गत किसानों की फसलों को बीमा सुविधा उपलब्ध कराई गई है। इससे यह उम्मीद बनती है कि आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र की तरह अन्य किसान भी आत्महत्या करने को बाध्य न होंगे। संविधान के अनुच्छेद 243-ए में कहा गया है कि कानून के अंतर्गत, राज्य स्तर पर राज्य विधानमंडलों को जो अधिकार प्राप्त हैं और ये विधानमंडल जो कार्य करते हैं, गांव के स्तर पर ग्राम-सभा के भी वही अधिकार तथा कार्य होंगे।

संविधान के 73वें संशोधन से पंचायती राज की स्थापना तो हो गई, परंतु इसका अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा। अच्छा तो यह होता कि संविधान के अनुच्छेद 243-ए को अनिवार्य बना दिया जाता और इसके अनुपालन की जवाबदेही सुनिश्चित कर दी जाती। क्षेत्रीय आयोजना को महत्व देना चाहिए। 1998 में योजना आयोग ने कृषि नीति तय करते समय ‘कृषि जलवायु क्षेत्रीय आयोजना परियोजना’ की घोषणा की, जिसके अंतर्गत देश को 15 क्षेत्रों में विभाजित किया गया। यह विभाजन मिट्टी की किस्म, वर्षा, तापमान, जल संसाधन आदि घटकों की समानता के आधार पर किया गया था। साथ ही ये क्षेत्र राज्यों की सीमाओं की अनदेखी कर बनाए गए थे। इसके अतिरिक्त 7334 क्षेत्र निर्धारित किए गए थे, जिसमें जिले को सबसे छोटी इकाई माना गया।

ग्रामीण विकास और ग्रामीण निर्धनता उन्मूलन के संदर्भ में क्षेत्रीय आयोजना के लिए इस प्रकार का वर्गीकरण अपनाया जा सकता है, जिससे क्षेत्रों के लिए अलग-अलग सूक्ष्म स्तर की योजनाएं बनाई जा सकती हैं। ग्रामीण लोगों की खुद की विकास संबंधी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए और उन्हें सशक्त बनाने की सोच को एक लंबे समय से मान्यता दी जा रही है। इस ग्रामीण विकास की प्रक्रिया को तेज करने में स्वयंसेवी संस्थाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

केरल में ‘सहायी’ नामक स्वयंसेवी संगठन ने ग्राम सभा के सदस्यों में जोश बनाए रखने के लिए तथा इसकी बैठकों का निरीक्षण करने जैसे फॉलोअप कार्यक्रम प्रारंभ किए हैं।

इसी प्रकार ‘प्रिया’ नामक संगठन ने हरियाणा में ग्रामीण विकास के लिए सक्रिय रूप से योगदान किया है। गुजरात के कैरा जिले में दुग्ध उत्पादकों को एक साथ जुटाकर एक महत्वपूर्ण कार्य किया गया जो बाद में आणंद दुग्ध यूनियन लि. के रूप में बदल गया। इसी प्रकार, कंपनी क्षेत्र में, छोटानागपुर (बिहार) में टाटा स्टील, परभणी (महाराष्ट्र) में मफतलाल समूह द्वारा, भरतपुर (राजस्थान) में लुपिन प्रयोगशालाओं द्वारा और एटा (उत्तर प्रदेश) में हिंदुस्तान लीवर द्वारा लोगों को सहभागी बनाकर ग्रामीण विकास सम्बन्धी योजनाएं सफलतापूर्वक कार्यान्वित की गई हैं।

विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा महिलाओं के कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं को भी नवाचार के रूप में देखना अनिवार्य है। इनमें मध्य प्रदेश की ‘पंचधारा योजना, हरियाणा की ‘अपनी बेटी अपना धन’, गुजरात की ‘कुंवर बाई मामेरूं’ योजना तथा पहाराष्ट्र की ‘कामधेनु योजना’ महत्वपूर्ण हैं।

मध्य प्रदेश सरकार ने तो अपने पंचायती राज अधिनियम की धारा 21 (क) के अनुसार पंच या सरपंचों को वापस बुलाने का प्रावधान किया है। इस स्थिति में या तो अच्छा काम करो या पद रिक्त करो। इसे भी नवाचार के रूप में उल्लेखित किया जा सकता है, जो पंचायतों को जीवंत बनाने में कारगर सिद्ध हो सकता है। रोजगार की अनेक योजनाओं को मिलाकर ‘स्वर्ण जयंती स्वरोजगार योजना’ का गठन भी नवाचार है, इसमें एकल प्राधिकरणों के स्थान पर सामूहिकता पर बल दिया गया है।

अंत में, केंद्र सरकार की ‘अन्नपूर्णा योजना’ जिसके अंतर्गत निर्धन वरिष्ठ नागरिकों, जिनकी अपनी आय नहीं है तथा कोई देखभाल करने वाला नहीं है, को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के प्रयास का उल्लेख किया जाना अपरिहार्य होगा। इस योजना के अंतर्गत निर्धन ग्रामीण वरिष्ठ नागरिकों को 10 कि.ग्रा. खाद्यान्न निःशुल्क देने का प्रावधान है। जिनकी उंगली पकड़कर हमने चलना सीखा, बूढी हो चली इन हथेलियों को अपनापन एवं ममत्व भरा स्पर्शमात्र हम  दे सकें- यही नवाचार की दिशा होनी चाहिए।

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Written by

Romi Sharma

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