हेलो दोस्तों आज फिर मै आपके लिए लाया हु Sainik ki Atmakatha in Hindi पर पुरा आर्टिकल। Sainik जिसका नाम सुनते ही बहुत प्राउड फीलिंग होने लगती है जो देश के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर देता है। आज हम आपको एक सैनिक की आत्मकथा के बारे में बताएँगे तो अगर आप अपने बच्चे के लिए एक सैनिक की आत्मकथा में ढूंढ रहे है तो आप इसको अपने बच्चे के होमवर्क के लिए उपयोग कर सकते है।
Sainik ki Atmakatha in Hindi
प्रस्तावना :
सेना किसी भी देश की सबसे बड़ी शक्ति होती है। देश की रक्षा व सुरक्षा करने का दायित्व सेना पर ही होता है। सेना का सिपाही अपने आत्म विश्वास के बल पर किसी भी संकट का मुकाबला डटकर कर सकता है। यदि सेना शक्तिशाली न हो तो उस देश के प्रतिभाशाली राजनेता ‘ भी कुछ नहीं कर सकते। यदि किसी भी देश के पास पर्याप्त मात्रा में युद्ध सामग्री तो हो, लेकिन उसे प्रयोग करने वाले योग्य सिपाही न हो तो वह युद्ध सामग्री निरर्थक है। एक सच्चा सैनिक ही देश की आन, बान और शान को बढ़ाता है।
एक सैनिक को बाल्य काल :
मैं बचपन से सैनिक बनने की इच्छा रखता था। मेरा जन्म भी एक सैनिक परिवार में ही हुआ है। मेरे दादा जी फौज में सैनिक थे, जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध कई युद्ध लड़े थे। उन्होंने स्वतन्त्रता सेनानियों को भी देखा था। मेरे पिता जो दूसरे विश्वयुद्ध में मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे। मैं रोहतक से पढ़ा हूँ। मुझे बचपन से ही पढ़ाई के साथ-साथ खेल-कूद में भी गहन रुचि थी। मैं एन.सी.सी. का छात्र था। मुझे कबड्डी, हॉकी, क्रिकेट, ऊँची लम्बी कूद आदि खेलों में पुरस्कार मिल चुके हैं। मैं अपने विद्यालय का होनहार छात्र था और बारहवीं कक्षा पास करने के बाद मैंने कॉलेज से बी.ए. भी अच्छे अंकों में उत्तीर्ण कर लिया।
सेना में भर्ती :
मेरा सपना अभी भी मेरे मन में जीवित था। इसीलिए घरवालों की आज्ञा से एक दिन मैं लालकिले स्थित भर्ती दफ्तर पहुँच गया। वहाँ मेरी शारीरिक जाँच हुई। मेरी आँखों, छाती, लम्बाई, चौड़ाई, वजन इत्यादि सभी की विस्तृत जाँच की गई और इन सभी में मैं पास हो गया। फिर प्रशिक्षण के लिए मुझे उत्तर प्रदेश में स्थित राजपूत रेजिमेन्ट के सिंगनल मोर की छावनी फतेहपुर भेज दिया गया। वहाँ का जीवन बदृत कठिन था। दौड़ते-दौड़ते थक जाता था, कभी मेरे घुटनों तथा कुहानियों से खून बहने लगता था लेकिन मेरे मन में दृढ़ इच्छाशक्ति थी इसलिए मैं सफल हो गया और आज मैं एक कुशल सैनिक हूँ।
युद्ध का मोर्चा तथा मृत्यु से साक्षात्कार :
प्रशिक्षण के उपरान्त मैं और भी मजबूत हो चुका था। कुछ समय पश्चात् हमारी सेना को कारगिल जाना | पड़ा। कारगिल की चौकी कश्मीर की एक ऊँची पहाड़ी चोटी पर स्थित थी। यहाँ पाकिस्तान की ओर से कभी भी युद्ध हो सकता था। एक दिन अचानक शत्रुओं ने हमला बोल दिया। चारो ओर से गोलियों की बौछार होने लगी। वे संख्या में हमसे अधिक थे, लेकिन फिर भी हमारी सेना ने हिम्मत नहीं हारी। चार घंटे तक लगातार दोनों तरफ से गोलियाँ बरसती रही। अन्त में हमने युद्ध जीत लिया। आज मैं एक कैप्टन बन चुका हूँ, क्योंकि मेरी तरक्की हो चुकी है।
उपसंहार :
ईश्वर ने मेरी दिली इच्छा को पूरा करके मेरे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है और मैंने भी निःस्वार्थ भाव से अपनी भारतमाता की सेवा की है। मुझे तो इस बात का गर्व है कि मेरी मेहनत व्यर्थ नहीं गई और हमने युद्ध जीत लिया। एक सैनिक के रूप में मेरी यात्रा सचमुच अविस्मरणीय है।
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एक सैनिक की आत्मकथा
मैं भारत का एक सैनिक हैं। जन्म से मैं देहाती और साथ ही एक किसान हैं। पुस्तकों का ज्ञान और अनुभव तो मेरे पास नाममात्र को है, पर उत्साह और सहनशक्ति असीम है। जब मैं भरती होने आया तो धोती-कुरता पहने हुए था। मेरे कुछ साथी, जो ठेठ उत्तर के रहने वाले थे, पायजामा और कुरता पहने हुए थे।
सेना का वातावरण हमारे लिए बिलकुल नया व अनजाना था। हमें यह भी विदित नहीं था कि वरदी कैसे पहनी जाती है। एक बार मैंने दाएँ पैर का जूता बाएँ में और बाएँ का जूता दाएँ में पहन लिया था। किंतु सीखने की शक्ति और रुचि मुझमें बहुत अधिक थी। दस-पंद्रह दिन के पश्चात् मुझे देखकर लोगों को विश्वास नहीं होता था कि मैं वही अनाड़ी रंगरूट हैं, जिसे कुछ दिन पहले जूते तक पहनना न आता था।
हमें कुछ मास तक प्रारंभिक प्रशिक्षण दिया गया। प्रात: नियम से ड्रिल होती थी। उस समय एक बटन का खुला रहना, परेड के समय जूतों पर चमक की कमी, बंदूक पर पॉलिश न करना आदि छोटी-छोटी बातों पर कड़ा व्यवहार होता था। एक भी कमी रह जाती तो अयोग्यता का चिह्न दे दिया जाता था।
सेना में अनुभव की कमी को कुछ सीमा तक क्षमा किया जाता है, किंत जानबझकर अनशासन का उल्लंघन अक्षम्य अपराध है। उसके लिए हमें अनिवार्य रूप से दंड मिलता था। परंतु अच्छे आचरण के लिए पुरस्कृत भी किया जाता था।
हमें सैनिक जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का ज्ञान करवाया गया; जैसे शस्त्र चलाना, क्षेत्र-कौशल, तैराकी, घुड़सवारी आदि। इनका उद्देश्य हमें सफल और कुशल योद्धा बनाना था। योद्धा तो हम जन्म से ही थे। थोड़े से प्रशिक्षण ने हमें रण-योद्धाओं की पंक्ति में ला खड़ा किया और हमें हमारी यूनिट में भेज दिया गया।
आखिर वह रोमांचक दिन भी आ पहुँचा, जिस दिन के लिए वीर माताएँ अपने सपूतों को जन्म देती हैं । शत्रु ने हमारे देश पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया था। कितना रोमांचक था वह क्षण, जब हम सीना ताने, मस्तक ऊँचा किए, शस्त्र चमकाते हुए मोरचे की ओर जा रहे थे। राष्ट्र-रक्षा का संकल्प हमारी नस-नस में खौल उठा था।
अहा !वे क्षण हमें कभी भुलाए नहीं भूलेंगे जब हमारी वीर बहनों ने हमारी कलाइयों पर रक्षाबंधन के सूत्र बाँधे थे। जब प्रत्येक वीर पत्नी ने सैनिक पति के माथे पर केसर के तिलक लगाए थे। जब बड़े-बूढ़ों ने हमें आशीर्वाद दिए थे, “बेटा, युद्ध में ऐसा यश कमाकर लौटो कि कुल की शान बढ़े।” फिर भारत माँ की सौगंध, हम मन में यह संकल्प लेकर युद्धक्षेत्र की ओर बढ़े कि हम शत्रु को दिखा देंगे कि भारत में सिंह बसते हैं, गीदड़ नहीं।
लददाख समढ़-तल से बारह हजार से लेकर अठारह हजार फीट की ऊँचाई पर है। इतनी ऊँचाई पर दुनिया का सबसे पहला युद्ध हमने लड़ा, १९६२ में। वहाँ भयानक दरें हैं, गहरे खड्डे हैं; मार्ग कहीं है, कहीं नहीं । कदम-कदम पर खड्ड में गिरने का भय होता है। वहाँ ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि साँस लेने में भी कठिनाई अनुभव होती है। ऊँचाई के कारण मितली और सिरदर्द होने लगता है। वहाँ भी हम पीठ पर सामान बाँधकर चले ।
घोड़े और याक भी वहाँ जवाब दे देते हैं। ऐसे स्थानों पर हमने कंधों पर उठाकर और रस्सी से खींचकर युद्ध-सामग्री ऊपर पहुँचाई। सर्दियों में वहाँ रक्त जमा देनेवाली सर्दी पड़ती है। नदियों और पानी के सब स्रोत जमकर पत्थर बन जाते हैं। वहाँ हम आग से पिघलाकर बर्फ पीते रहे और बर्फीले तूफानों में रहते रहे, उन्हें सहते रहे और लड़ते रहे।
युद्ध में हम फौलाद के हिंदुस्तानी बनकर लड़े। वहाँ हमारा रौद्र रूप देखने योग्य होता था। बंदूकों की गोलियाँ, तोपों की गर्जन और लोहू की फुहारें हमारे साथी होते थे। मांस फटने की ध्वनि, राइफलों के कुंदों से खोपड़ियाँ फटने की गूंज, दम तोड़ते सैनिकों की अंतिम हाहाकार सुनते हुए हम आगे बढ़ते जाते थे।
शत्रु का संहार करते हुए हमारा यह रणनाद हमारे शरीर में बिजली दौड़ा देता था-‘भारत माता की जय’।।
आज भी उन दिनों का स्मरण करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हममें से बहुत से सैनिक भारत माता पर बलिदान हो गए। हम भी घायल हुए, परंतु मोरचे से टस से मस न हुए।
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अच्छी जानकारी है